सुबह-सुबह कोलाहल की वजह से नींद थोड़ी टूट गई। अभी तो छह भी नहीं बजे थे। मीठे स्वप्नों को हौले-हौले अलविदा कह ही रही थी कि रसोईघर की दीवारों को लांघती सोंधी-सी…कुछ अपनी-सी खुशबू मन में समाने लगी।

अहा! …गुझिया!

होली!!

हमारी…तुम्हारी…हम सबकी…पसंदीदा होली। ऐसा त्योहार जो ज़िन्दगी की सम्पूर्णता को खुद में समेटे हुए है…अपने और हमारे रंग और मिठास से। आखिर रंग और मिठास ही तो जीवन को सम्पूर्ण करते है हर मायने में।

हृदय मुस्करा उठा इन्हीं मायनों के बीच। यह मुस्कराहट महज़ त्योहार को मनाने के उत्साह को लेकर नहीं थी। यह थी बिलकुल पवित्र…टेसू के फूलों-सी…माँ की हाथों की गुझिया सी; मुस्कराहट जो सींची हुई थी…अहाते में खेलते बच्चों की खिलखिलाहट से; मुस्कराहट जो अपना दामन फैला रही थी…दरवाज़े की ओट में छुपी नवयुवतियों के शर्म से; और मुस्कराहट जो अंतस में बसती जा रही थी…पल-पल बढ़ते प्रेम सी। यह क्षणिक नहीं थी। यह कई दिनों तक बरकरार रहने वाली है… मेरे हृदय में…तुम्हारे हृदय में…और हम सबके हृदय में।

‘होली’ तो खुद में एक बेहद सुन्दर शब्द है जिसकी कल्पना मात्र से ही वातावरण और हृदय, दोनों ही रंग से सराबोर प्रतीत होते हैं। लेकिन इस होली महज चेहरों को रंगे नहीं; बल्कि लोगों के दिलों को भी रंगे… उनकी आत्मा को, उनके रोम-रोम को प्रेम के रंगों से, उम्मीद के रंगों से, सपनों के रंगों से…क्योंकि ये हल्के ज़रूर हो सकते है, लेकिन जल्दी मिटते नहीं।

होते हैं अमिट…

बिलकुल होली शब्द की तरह।

आप सभी को इस रंगों के त्योहार की मुबारक़बाद! 🙂

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