“प्रेम, त्याग और अंतर्द्वंद्व की अमर कहानी”

हमारा जीवन एक कहानी की भांति है जिसकी पटकथा कई प्रकार के घटनाक्रमों से होकर गुजरती है जो हमारे जीवनकाल में घटित होते रहती हैं। इस कहानी में न जाने कितने पात्र आते हैं जिनका कालक्रम सूक्ष्म होता है, और कुछ पात्र ऐसे भी होते हैं जिनका प्रभाव और छाप कहानी के अंत तक मुख्य किरदार के ऊपर सदैव के लिए अंकित हो जाता है। जीवन का यह चक्र करवट बदलता है, हर कहानी का एक अंत होता है। अंत सुखद हो या दुखद इसका निर्णय तो समय करता है।

धर्मवीर भारती द्वारा लिखित कालजयी उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ जो प्रेम, त्याग, नैतिकता और समाज की जटिलताओं को बेहद मार्मिक ढंग से प्रस्तुत करता है। इस उपन्यास में धर्मवीर भारती ने प्रेम के विभिन्न रूपों को प्रस्तुत किया है जिसे व्यक्ति अपने सुविधा अनुसार आत्मसात कर लेता है और उसे उचित सिद्ध करने के लिए विभिन्न प्रकार के तर्क प्रस्तुत करता है। किसी के लिए प्रेम शरीर से परे आत्मा की शुद्धता का प्रतीक है जो जीवन में ऊंचाई प्रदान करता है और किसी के लिए यह शारीरिक तल की बात है जो वासना को पूर्ण करने का साधन मात्र है।उपन्यास की यह पंक्तियां-

“जिंदगी का एक यंत्रणा चक्र पूर्ण कर सितारे एक क्षितिज से उठकर आसमान पार कर दूसरे क्षितिज तक पहुंच चुके थे। अपनी भयानक लहरों से सबसे मासूम व्यक्तित्व को निगल कर अब धरातल शांत हो गया था, तूफान थम गया था, बादल खुल गए थे और सितारे फिर आसमान के घोंसले से भयभीत विहंग समकोण की तरह झांक रहे थे।”

जीवन की अनिश्चितता, क्षणभंगुरता और विध्वंस के राख से नवनिर्माण करने की इच्छा शक्ति को अभिव्यक्त करती हैं।

यह उपन्यास इलाहाबाद की गलियों में उपजी एक नवयुवक चंदर और सुधा के बीच की प्रेम कहानी के साथ प्रारंभ होती है जो सामाजिक बंधनों, आत्मिक दुविधाओं, स्वर्निर्मित आदर्श और नैतिकता की बोझ तले दबकर अभिव्यक्त नहीं हो पाती है। यह केवल एक प्रेम कहानी नहीं है, बल्कि आत्मा की पीड़ा, समाज की कठोरता और आदर्शों की जंजीरों में बंधे मानव हृदय की त्रासदी है। इसे पढ़ने के पश्चात अंत में बचता है सिर्फ एक दीर्घ नि:श्वास जो हमारे भावुक हृदय से निकले करूण और रूंधे हुए स्वर को मुख से बाहर निकलने से रोकने का प्रयत्न करता है।

सुधा, डॉ शुक्ला की बेटी है, जो एक कॉलेज में प्राचार्य हैं। और चंदर डॉ. शुक्ला के घर में ही रहता है, और वहीं पढ़ाई करता है। सुधा के साथ उसका बचपन से आत्मीय संबंध बन जाता है। डॉ. शुक्ला उसे एक पुत्रवत स्नेह देते हैं और चंदर भी उन्हें पिता जैसा मानता है। उनके बीच औपचारिकता नहीं, बल्कि विश्वास और आत्मीयता का रिश्ता था। धर्मवीर भारती ने इन तीनों के बीच त्रिकोणीय संबंध को बड़े ही रोचक तरीके से प्रस्तुत किया है। यह रिश्ता बाद में चंदर के लिए आत्मिक द्वंद्व का कारण बनता है। उसे लगता है कि अगर उसने सुधा का प्रेम स्वीकार किया तो वह डॉक्टर शुक्ला का विश्वास तोड़ेगा और उसे अपने नैतिकता और आदर्शों के साथ समझौता करना पड़ेगा। सुधा एक ऐसी युवती थी जो अपने प्रेम को जीना चाहती है लेकिन वह भी समाज और परिवार के निर्णयों के आगे झुक जाती है। उसका प्रेम न केवल भावुक है, बल्कि वह चंदर से अधिक स्पष्टवादी और साहसी भी है।

इस उपन्यास को दो भागों में बाँटा जा सकता है। शुरुआती भाग में भारती जी ने एक सैद्धान्तिक प्रेमी की मानसिकता दर्शायी है वहीं दूसरे भाग में प्रेम में स्थापित तृष्णा और वीरह को उकेरा है और बताया है कि वास्तव में प्रेम सभी सिद्धांतों के परे है। कहानी में ये मोड़ तब आता है जब सुधा का विवाह हो जाता है और चन्दर एवं सुधा अलग हो जाते हैं। विवाह के पश्चात सुधा अपने पति के लिए एक वासना का साधन मात्र बन कर रह जाती है। किंतु उसने वासना को अपने आत्मा से कभी स्वीकार नहीं किया। शरीर और आत्मा के इस अंतर्द्वंद में सुधा का जीवन अत्यंत कष्टमय हो जाता है। सुधा का विवाह हो जाने के पश्चात चंदर की स्थिति पेड़ से टूटे हुए उस सूखे पत्ते के समान हो जाती है जो हवा के झोंकों के साथ दिशाहीन हो जाता है एवं आश्रय की तलाश में भटकते रहता है। उसे इस अकेलेपन, निराशा और हताशा से भरे जीवन से बाहर निकलने में डिक्रूज नाम की एक महिला सहायता करती है। डिक्रूज के लिए प्रेम शारीरिक सुख और वासना का पर्याय है। उसके संपर्क में आने के पश्चात चंदर का प्रेम के प्रति दृष्टिकोण बदल जाता है, और वह सुधा के साथ अपने पवित्र प्रेम की मर्यादा को भूलकर वासना में डूब जाता है। वह एक ऐसे पतित देवता में परिवर्तित हो जाता है जो स्वर्ग से निष्कासित तो हो चुका है, किंतु उसके पुण्य संचित हैं यद्यपि कुछ कर्मों की मलिनता से उसकी आत्मा कलुषित हो जाती है। यही स्थिति इस उपन्यास के शीर्षक ‘गुनाहों का देवता’ की सार्थकता को सिद्ध करती है।‘विनती’ डॉक्टर शुक्ला के बहन की बेटी थी जो चंदर के सिद्धांत और आदर्शों के कारण मन ही मन उससे प्रेम करती थी। वह डिक्रूज के साथ उसके संबंध को जानते हुए भी चंदर को वासना के सागर से बाहर निकालकर सही मार्ग पर लाने का प्रयत्न करती है।

उपन्यास में ना केवल भावना और वासना के बीच संघर्ष का मनोवैज्ञानिक चित्रण किया गया है बल्कि आधुनिक शिक्षित मध्यवर्गीय समाज की रूढ़िवादी मानसिकता को भी बखूबी दर्शाया गया है। धर्मवीर भारती जी ने खोखले आदर्शवाद और पुरानी रूढ़ि परंपराओं पर व्यंग का तीखा प्रहार किया है। उसूल और सिद्धांत को जीवन की वास्तविकता के साथ एक तराजू पर रखकर जाँचा है जिससे यह निष्कर्ष निकलता है कि यहां वही सिद्धांत टिक सकते हैं जिनकी नीव यथार्थ के धरातल में है। गंगा के तट पर जहां अग्नि की ज्वाला में भस्म हो चुके शरीर का अंतिम अवशेष ‘अस्थियों’ को विसर्जित किया जाता है, एक विध्वंस के पश्चात उसी भस्म से एक नव आरंभ के साथ ही उपन्यास का समापन होता है।

-वैभव आनन्द

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