यह एक कहानी है जिसमें एक पत्रकार महोदय जो कि एक कवि भी हैं, बिहार में आई बाढ़ की पत्रकारिता करने वहाँ गए हैं। वहाँ वे एक किसान से मिलते हैं। वह किसान लाचार इधर – उधर पानी में भटक रहा है। कवि व्याकुल हो उससे पूछते हैं-
सरिता है उफान पर
धरती भी जा रही पिघल
पेड़ पौधे भी बह गए
सरकारी योजना सारी विफल
इंद्र देव की अब यहाँ पर
देखते बन रही शान
इस उथल पुथल में भी
तू क्या ढूँढ़ रहा किसान?
किसान देखता है कि गाँव में आखिरकार पत्रकारों के आने का ‘मौसम’ आ गया है। उसके प्रश्न के उत्तर में वह कहता है-
भटकूँ नहीं तो क्या करूँ कवि?
परिवार का एकमात्र सहारा हूँ।
जिस पेट को पालने के लिए
तुम यहाँ पर आए हो
मैं भी उसी का मारा हूँ।
किसान की बातें सुनकर पत्रकार कहता है-
हाड़- मांस के पुतले से तुम
चौड़े हो रहे साहूकार।
अन्नदाता, कर्मयोगी,
तू ही है भगवान।
न जाने किनके हाथ में,
पकड़ा दी तुमने जीवन की डोर।
ए. सी. रूम में बैठे लोगों तक
कहाँ से पहुँचे यह शोर!
किसान देखता है कि पत्रकार उसके प्रति संवेदना व्यक्त कर रहा है। पर कोई चीज़ तभी अच्छी लगती है जब उसकी ज़रूरत हो। और फिलहाल उसे संवेदना की नहीं, अपने बच्चों के लिए भोजन और परिवार के लिए आशियाने की ज़रूरत है।
क्या करूँ इन बातों का,
इन बातों का क्या मोल?
कई दिनों से भूखे सोते
मेरे बच्चे अनमोल।
निकल पड़ता हूँ अब भी
मैं अपना फर्ज़ निभाने
शायद बाबुओं की नजर
पड़ जाए इसी बहाने।
यह सब सुनकर पत्रकार की आँखों में आँसू आ जाते है और वह कहता है-
न जाने
कब तक तुम बेरंग बैठोगे
और हम खेलते रहेंगे,
रंगों की होली।
क्रंदन तुम्हारा देखकर
चली गयी
सारी वासना मेरी।
और
जो कहता है ना खाने दूँगा
और न खाऊँगा
वादा तुमसे करता हूँ,
बात उन कानों तक पहुँचाऊंगा।
बहुत सुंदर
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एक किसान था जीवन्त धरा
थी जमीन उसकी थोड़ी वहां
नदी किनारे थी जमीन वो
साहूकार की नज़रे थी गड़ी वहां।।
एक दिन किसान ने कर्ज लिया
चुका ना पाया उसे वहां
उसी की जमीन उसी के सामने
कब्जा लिया साहूकार ने वह।।
रो रो कर किसान बेहाल है
देख रहा था कवि वहां
कलम उठाए लिखने लगा वो
आप पढ़ रहे व्यथा यहां।।
किसान कवि और साहूकार
तीनो शब्दो सामने है यहाँ
अब आप पर निर्भर है साथियो
न्याय आपको करना यहाँ।।
काम हमारा था लिखना धरा पर
कलम देवी ने दी यहाँ
फर्ज समझते हम लिखना
फर्ज निभाया अपना यहाँ।।
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