मैं तुमसे मिलना चाहती हूँ।
उसी गहरे सागर के तल में,
जहाँ तुम्हारी काया धीरे-धीरे
अब पानी में विलीन हो रही होगी।
उस शिल्पकार की
महीनों की मेहनत भी
अब तुम्हारा कलेवर छोड़
अपना अस्तित्व खो रही होगी।
काले, घुंघराले मेघों-से
तुम्हारे लम्बे केश भी
अब दूब की भाँति
असीम, फैल गए होंगे।
शायद,
छोटी-छोटी मछलियाँ
उन दूब के इर्द-गिर्द
अटखेलियाँ कर रही होंगी।
हाँ, कहते हैं लोग
कि तुम्हें नौ दिन पूज कर,
किसी जलराशि को
सौंप देना उपयुक्त है,
तुम्हारे पुनरागमन के आस में।
फिर भी
मैं जल-गर्भ में आ कर,
तुमसे पूछना चाहती हूँ,
क्या तुम्हें यूँ विसर्जित होना
अच्छा लगता है माँ?
बढ़िया
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Thank you
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Wonderful creativity and thought’s
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Thank you
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बहुत अच्छा…
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Thank you
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Beautifully written and so deep.
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Thank you
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Good job buddy
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Thank you!
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मर्मस्पर्शी रचना है। ।विसर्जन की आस्था पर
सोचने के लिए प्रेरित करती है ।
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