कल ढली शाम अलग थी,

आज सुबह का रूप अलग है

बह रही थी जो मंद-मंद कल तक,

आज हवाओं का रुख अलग है

डूब गया था जो अंधेरे में

आज, सूरज की धूप अलग है।


यह सुबह नई शुरुआत है

नव-भारत के सृजन की

राष्ट्र के निर्माण को,

भारत-समुद्र के मंथन को।

सुनो हुंकार हवाओं की

मेघों का गर्जन

शंखनाद है परिवर्तन का

हो रही है  ‘नव’ सर्जना

One thought on “नव-सर्जना

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