प्यारी दीक्षा,
हाँ जानती हूँ तुम्हारा नाम कुछ और है,
पर तुम भी जानती हो
कि यही तुम्हारा नाम है।
तुमसे मिलने का दिल तो बहुत करता है
पर क्या करूँ? न वक्त है
और न ज़रिया।
जानती हूँ
कि जब तुम जानोगी कि मैं कौन हूँ तो
कई सवालों के जवाब माँगना चाहोगी मुझसे
पर मैं कोई जवाब नहीं दे पाऊँगी
मैं कोई जवाब नहीं देना चाहती,
बिल्कुल तुम्हारी तरह।
हाँ कुछ बातें ज़रूर साझा करूँगी
वो जो अपनी sketchbook छत पर फेंक आई हो
उसे बारिश में भीगने मत दो,
उसे अपनी किताबों के साथ रखो,
वो तुम्हारी कहानियों की डायरी
जो नीचे बक्से में पड़ी है
उसे बाहर निकालो
सब कहेंगे
कि रोना कमज़ोरों की निशानी है
पर तुम अपने आँसुओं पर कभी शर्मिंदा मत होना,
सब कहेंगे
कि तुम्हारे दो चेहरे हैं
पर तुम अपनी पहचान कभी मत भूलना,आ
बड़े शहर में सड़क पार करते हुए
तुम गिरोगी, बहुत बार
पर तुम उठना कभी मत भूलना
जानती हूँ,
तुम डरती हो
कि सब तुम पर हँसेंगे
धीरे धीरे तुम खुद पर हँसना सीख जाओगी
तुम डरती हो
कि सब तुम्हें गलत समझेंगे
धीरे-धीरे सीख जाओगी कि ‘सब’ ज़रूरी नहीं
हर मुश्किल का जवाब तुम्हारी पढ़ाई में नहीं है
जल्द ही जान जाओगी
जो निशान, तुम्हें लगता है,
तुम्हें कम सुंदर बना रहे हैं
वो एक दिन तुम्हें युद्ध से लौटे
किसी विजयी योद्धा की याद दिलाएंगे
न अब ज्यादा दोस्त हैं,न तब होंगे
न अब कोई समझ पाया है, न तब समझ पाएगा
न अब परवाह करती हो, न तब करोगी
तुम्हारी कल्पना से कहीं बद्तर है ये दुनिया
रास्ते में जो फूल मिलें उन्हें ज़रूर समेट लेना
तुम्हारी ही,
अपूर्वा