बात में, व्यवहार में
सोच में, विचार में
रक्षा में, प्रहार में
उपकार में, उपहार में
प्रवाह में, धार में
हर जीत में, हर हार में
कहीं सही, तो कहीं गलत रहा हूँ मैं
हाँ, थोड़ा अलग रहा हूँ मैं।

कोई बात कैसे मान लूँ,
जब तक न सच मैं जान लूँ
वो क्यों कहूँ जो तुम कहो ?
वो क्यों जियूँ जो तुम जियो ?
क्यों पूजूँ मैं उस पत्थर को,
क्यों पीलूँ मैं गंगाजल को?
क्यों पत्थर ना पिघला दूँ मैं,
पानी पर राह बना दूँ मैं!
पर्दों के पीछे छिपा रहूँ?
दिनकर जब स्वयं बुलाता हो
मैं अंधकार में ढका रहूँ?
पर्दों को तेरे जला दूँगा
लपटों की आबा लिए हुए
तेरे अंधियारे मिटा दूँगा ।

बहना है जब उन्मुक्त हो
तो फिर ये सांचे किस लिए?
तो फिर ये ढांचे किस लिए?

हाँ, गुम हूँ तेरी ही भीड़ में कहीं
पर शायद मैं तुम जैसा नहीं ।

-प्राची अपूर्वा

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