असंतुलन समाज का फिर, नयनों के द्वार खोल रहा है
जहाँ भी देखूँ , दीनता का कोई मोल रहा है
हो हृदय दर्द से विचलित,खुद को टटोल रहा है,
इसलिए मेरा अशांत मन चीख-चीख कर बोल रहा है,

खुश है वे जिनके थाली में छप्पन भोग बरसता है।
हाथें है घृत भरी और भोजन से दूध टपकता है ।
लेकिन उनकी कौन सुने जो दिनभर बोझा ढोते हैं
दो जून रोटी खाने को बच्चे जिनके रोते हैं।

सर्दी ,गर्मी और बरसते बादल उनका दर्द बढ़ाते हैं
उनके अस्थिमय शरीर पर तीखे वाण चलाते हैं।
उनकी हालत देख- देख ये आँखे नम हो जाती हैं,
रोते-रोते, दर्द भरी ये दो आँखे भी कम हो जाती हैं।

भारत का धनकोष भरा-भरा है फिर भी खाली-खाली है,
क्योंकि इससे सजी तो नेताओं की थाली है,
जिस थाली में भोजन होता वह अब खाली है,
भक्षण करना ही अब इनकी नज़रो में रखवाली है।

भारत के सुधी जनों को आगे आना ही होगा,
सत्ता के लोभी सर्पो को घायल करना ही होगा;
जिसके विष से आर्यावर्त्त में भ्रष्टाचार पनपता है,
शोषित ,पीड़ित और दीन लोगों का कष्ट झलकता है।

~ब्रजेश पांडेय, धात्विकी अभियंत्रण
सत्र-२००८
सर्जना ‘२९वें अंक ‘ में प्रकाशित

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