लिपट तेरे दामन से वो बिटिया यूँ रोने लगी
कल तक तेरी परछाई कहने वाली, खुद को पराई कहने लगी
खोल तेरा ओढ़ आई एक गुड़िया
बासी-सी यादें वो उसकी, आज मेरे अल्फाज़ों में बहने लगी…
दर्पण आँखों की तेरी, से खुद को सजाया करती है
कभी आँगन में बैठ तेरे जुड़े बनाया करती है
सजीली-सी वो उँगलियाँ उसकी…रसोई मे जलने लगी
कल तक तेरी परछाई कहने वाली, जब खुद को पराई कहने लगी
करवट वे बचपन की तेरे पल्लू में सिमटी रहती है
माँ-माँ की गूँजें तेरे आँचल मे लिपटी रहती है
अजीब नियम है ये…ऐ माँ! इस संगम को जिसने उजाड़ दिया
पन्नाह उसका बाबुल से छीन, तू सोचती है, जीवन तूने सँवार दिया!
पूछ कभी उसके अश्कों से
कैसे वो तेरी जुदाई सहने लगी
कल तक परछाई कहने वाली वो बेटी, आज खुद को पराई कहने लगी…
बहुत सही है…
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