जीने में आज भी खूं ये हमारी सलीका रखती हैं,

छोटों से प्यार करती हैं बड़ों का मान रखती हैं।।
 

बड़ी ही शिद्दत से कमाई है हमने ये तालीम,

बज़्म-ए-हय़ात आज भी कब्रगाहों को याद करती है।।
 

शिकन आती नहीं कभी इस चेहरे की शान पर,

घर की तरबियत बाहर के फैसलों में जान रखती है।।
 

इस मिट्टी की खुशबू दिमाग-ओ-बदन से नहीं जाती,

लेटेंगे यहीं मरके रूह ये नाज़ करती है।।
 

गुल-ए-वतन को और भी बहुत आगे पहुँचाना है,

धड़कन थामें नहीं थमतीं हौसले परवाज़ करती हैं।।

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