तलाश रहा हूं,
सभी कोलाहलों से दूर,
नितांत शांत स्थलों पर,
पक्के सड़कों से दूर,
कच्ची पगडंडियों पर।
दुर्गम पर्वतों के शिखरों पर,
अरुणोदय की लालिमा में,
घटाओं की कालीमा में।
पर्वतों के गर्भ में,
धारा के आघात से उत्पन्न
झरनों की कलनाद के मध्य।
घने वनों के मध्य,
घोंसले से झांक रहे विहंगों की
अव्यवस्थित मधुर ध्वनियों में,
वृक्षों की पत्तियों से लिपटकर
उत्पन्न हवा की प्रतिध्वनियों में।
प्रकृति की गोद में,
मेघ गर्जना की ताल पर कौंधी
दामिनी की क्षणिक नृत्यों में।
जड़ और चेतन की परिधि पर,
स्वयं को भूलकर,
स्वयं के ही तलाश में,
जो सत्य है, चैतन्य है, आनन्द है।।
– वैभव आनन्द
