प्रिय,

तुम मेरी प्राथमिकता थी,

सम्भवतः मैं तुम्हारा विकल्प।

तुम उद्यान की वह पुष्प थी,

जिसके सम्मुख,

सबकी सुंदरता थी अल्प।।

मैं नहीं देना चाहता था तुम्हें श्रृंगार की वस्तुएँ,

मैं तो चाहता था…

तुम्हें कालिदास की मेघदूतम सुनाऊँ।

वह मेघ बन बरस जाऊँ,

जिसके सम्मुख यक्ष ने बहाए थे अश्रु विरह में।।

ले चलूं तुम्हें,साहित्य के उस सागर में,

जहाँ जीवंत है अनेकों गाथाएँ।

इलाहाबाद की उन गलियों में,

जहाँ गूँजती है,

सुधा और चंदर की अधूरी प्रेम कथा ।।

विचरण करूँ तुम्हारे साथ,

ल्हासा के उन पर्वतों में,

जहाँ जीवंत है पहाड़ी सभ्यताएँ।

बिहार के उस आँचल में,

जहाँ बिखरी है गांव की छटाएँ।।

किंतु,

ठुकरा दिया तुमने मेरी याचना,

उचित नहीं समझा चलना मेरे साथ।

कितनी सुंदर होती यह अल्प यात्रा,

यदि उर्वशी बन,थाम लेती पूरूरवा का हाथ।।

-वैभव आनन्द

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