कविता रूपी विशाल सागर को, 
कमण्डल में समाहित करती सार हो तुम।
बिखरे हुए मेरे विचलित मन को समेटकर, 
मुझे स्वयं से जोड़ती डोर हो तुम।
मीत! 
मैं मौन हूँ, तो शब्द हो तुम।।

अंधकार रूपी घने बादलों को छाँटकर, 
प्रकाश की परिधि बढ़ाते सूर्य हो तुम।
चहुँ ओर प्रसारित निराशा रूपी तूफान में, 
हिम्मत बांधती आशा की स्त्रोत हो तुम।
मीत!
मैं कश्ती हूँ, तो पतवार हो तुम।।

नदी की शान्त जलधारा में, 
किलोलें करती निश्छल मत्स्य हो तुम।
बंजारे रूपी भँवरों को आकर्षित करती, 
कला स्वरूप पुष्प सुवास हो तुम।
मीत!
मैं जीव हूँ, तो जीवन हो तुम।।

कर्म रूपी साधना में तप कर, 
गंगा की धारा सम पवित्र हो तुम।
सादगी रूपी धन से परिपूर्ण,
सौंदर्य की परिभाषा हो तुम।
मीत! 
मैं चंद्रमा हूँ, तो ज्योत्स्ना हो तुम।।

मोह के भँवर में उलझे पार्थ के लिए, 
मुरलीधर माधव सदृश सारथी हो तुम।
साधुता, स्थिरता, नीरवता, सक्रियता, सहजता रूपी
पंचतत्वों का उत्कृष्ट समागम हो तुम।
मीत! 
मैं अर्ध हूँ, तो पूर्ण हो तुम।।

By: Varsha Agarwal
Branch: Chemical Engineering
Batch: 2018

One thought on “मीत

  1. मैम, आपने मीत की परिभाषा को बेहद सरल शब्दों में प्रतिपादित किया। अति उत्कृष्ट!

    Like

Leave a Reply

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  Change )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  Change )

Connecting to %s