संगीत
जीवन का
बजता है
चारों ओर,
जीने का उल्लास
बिखेरती है
माँदर की थाप,
आदिम संस्कृति का
यह उद्घोष में
पहचान है
आदिवासी मानुष की ।
रंग-बिरंगी
भूषा में,
नृत्य की लयकारी,
जैसे धरती भी
थिरकती हो,
अपनी सबसे प्रिय
संतानो के सँग
मगर
हो सकता है
यह सबकुछ
बस एक ज़रिया हो,
भूल जाने का
सदियों से मिले
उस दंश को,
जो प्रगतिवादी समाज ने
दिया है-
आदिवासियों को।
~दीपक कुमार
असैनिक अभियंत्रण, सत्र २००१