पूर्ण चेतना में प्रिय हुआ आखिरी मिलन!
ग्रह नक्षत्रों का कोई विशिष्ट संयोग न था
किसी अलौकिक शक्ति से प्रेरित समानांतर कल का योग न था
दो स्वच्छ, पवित्र पुलकित हृदय ने, स्वेच्छा से स्वभाग दिया
पवित्रता की परम कसौटी का दो हृदय ने आभास किया।
पुनर्विदित था दोनों को यह आखिरी स्पर्श होगा
साँसों का अंतिम मेल, यह अंतिम संघर्ष होगा।
मेरे तुम्हारे आँखों में अविरल अश्रुधार सा था
जैसे भावनाओं का कोई सैलाब प्रचंड अपार सा था
हम लिपट गए एक दूसरे से, जैसे दो लताएँ प्राकृतिक रूप से लिपटती हैं
सिमट गए एक दूसरे में, जैसे जल में वायु सिमटती है।
जैसे दो चुंबकीय अर्द्ध को सृष्टि सदियों से बाँध रखी थी
जैसे बस इस क्षण के लिए था मेरा तुम्हारा साकार अस्तित्व।
फिर,आँसुओं ने हमारे स्पर्श किया बिन चाहे एक दूसरे में घुल मिल गए
हम चाह कर भी जैसे एक दूसरे में घुल नहीं सकते थे।
तुम मुझे और,और जकड़ती गयी अपनी हर सिसक के साथ
मैं भी तुम्हें जकड़ता गया अपने आँसुओं के ठिठक के साथ
यह आलिंगन अपूर्व अद्भुत असाध्य सा था
जैसे आराधक के बाहों में स्वयं उपस्थित आराध्य ही था।
जैसे संपूर्ण सृष्टि के अंधकार में बस इन हृदयों में ही गति हो
जैसे इस क्षण की पूर्व में न किसी को अनुमति हो।
फिर तुम मुझे चूमती गई अधर से अंगुष्ठों के पोरों तक
फिर मैं तुम्हें चूमता गया तुम्हारे उत्थान से अंतिम छोरों तक।
इस अद्वितीय काल के कुछ और क्षणों को हमने खो दिया
गर्म बूंदों और साँसों से एक दूसरे को हमने भिगो दिया।
जैसे इस संसार के लिए एक दूसरे का एक अंश भी न छोड़े
हमारे हरेक अंग-प्रत्यंग ने एक दूसरे को स्वीकार किया
फिर रोम-रोम, कतरे-कतरे ने टूट-टूट कर प्यार किया।
जैसे तुम देवी हो, मेरा संपूर्ण तुम्हें अर्पित है
जैसे मैं कोई देव हूँ,तुम्हारा भोग मुझे समर्पित है।
फिर जैसे आवेश दौड़ गया हो नसों में बाहुओं में अपरिचित बल आया
जैसे समस्त तंत्र झंकार उठा हो,लहू प्रवाह ऐसा प्रबल आया
एक-दूसरे पर आच्छादित हो, चरम अनुभूति का पल पाया
कोई संसर्ग अब शेष नहीं,हर कामना संपूर्ण-सकल पाया
तुम भुजंग से लिपट गई सर्वत्र मेरी काया में
सृष्टि, श्रेष्ठा सब बंध गए हो, इस लौकिक माया में।
आँसुओं के संगम में हम लिप्त सिसकते-सुबकते रहे
भोर सृष्टि यथावत रह गई, बस हम न रहे ।
तुम इसी क्षण से मुक्त हो प्रिय मेरे किंचित अधिकार से
तुम मुक्त हो मेरी अनुभूतियों से मेरे विचित्र व्यवहार से
चाहे हम- तुम पा लें प्रेम कोई नया अस्तित्व
चाहे हम-तुम पहले स्वयं पूज्य प्रेम का प्रियत्व
नहीं हासिल होगा हमें प्रिय वो प्रेम-लिप्त तपन
पूर्ण चेतना में प्रिय हुआ, हमारा आखिरी मिलन।
संभव नहीं पुनः इस जीवन में
यह अप्राप्य क्षण प्रिय
निश्चित है यह क्योंकि
था हमारा आखिरी मिलन प्रिय!
~कुमार हर्ष
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, रुड़की।
सुन्दर !
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