कुछ इठला कर,

एक बच्चे की तरह

अभिमान भरी आँखों से,

एक बूढ़े शेर की तरह

व्यंग्य करता है;

मेरा अस्तित्व मुझसे सवाल करता है।

 

रोज़ आईने में दिखती है

एक धुंधली तस्वीर

धूल जम गई है शायद

मैं नहीं हूँ…

मुझ पर हँसता है;

मेरा अस्तित्व मुझसे सवाल करता है।

 

कौन हो तुम?

कहाँ हो तुम?

कितने सवाल करता है

नादान है,

वास्तविकता से अंजान है,

या…सच्चा है शायद

मुझे सोचने पर मजबूर करता है;

मेरा अस्तित्व मुझसे सवाल करता है।

 

शांत हो गया

समझ गया, या शायद

समाज के ढंग में ढल गया

या, समाप्त हो गया?

अब, नहीं इठलाता

बच्चे की तरह,

झील बन गया है…गहरा

व्यंग्य नहीं करता

कोई सवाल नहीं करता।

3 thoughts on “अस्तित्व सवाल करता है

Leave a comment