क्यों बैठा है सिर पर हाथ धरे
पलकों पर अश्रु लिए
हो अपनी मंजिल से परे;
क्या, इतनी-सी है तेरी संसार!
शून्य की भी प्राप्ति नहीं होती
बिना उचित प्रयास किए
क्यों बैठा है सिर पर हाथ धरे
होकर, अपनी मंजिल से परे।
मैं एक मामूली-सी चींटी
हार का रस कभी न पीती
असंख्य प्रयासों का है उत्साह
मंजिल मिल जाने की मात्र चाह।
नहीं हारती मैं!
बिन अड़चनों से लड़े,
क्यों बैठा है सिर पर हाथ धरे
होकर, अपनी मंजिल से परे।
छोड़ अतिरिक्त काज सारे
कर नए सफ़र की शुरुआत
भंडार लिए कोशिशों की
जीतनी है, तुझे ही संपूर्ण संसार।
प्रेरणा की प्रवाह से
भर ले आत्मविश्वास के घड़े।
अब भी क्यों बैठा है सिर पर हाथ धरे
होकर अपनी मंजिल से परे।
मुख पे हो आशावादी मुस्कान
गन्तव्य की ओर एकमात्र हो ध्यान
कर्मठ कर कदमों को
निरंतर खड़ा रह; निष्ठापूर्ण।
अब न बैठना सिर पर हाथ धरे।
होकर अपनी मंजिल से परे।।