मैं खुशकिस्मत था,
जो लला था,
कृष्ण कन्हैया सा,
दो माँओं का लाडला,
एक का सूरज
दूजे का चाँद-दुलारा।
एक माँ ने जन्म दिया,
फ़ौलादों-सा जिगर
और हौसला बुलंद दिया,
पर दूजी की सेवा को
मुझे खुद से ही दूर किया।
एक माँ की रक्षा करने को
सरसों के खेतों से,
गलियों और चौराहों से,
घर-आँगन और नज़ारों से,
विदा लेकर मैं चल दिया।
सिर पर कफ़न बाँधे,
चल पड़ा था मैं
आँसुओं का प्रतिशोध लेने,
संहार कर माँ के शत्रुओं का
उसे अजातशत्रु बनाने को।
मौत से भी नहीं मैं डरता था,
वन के केसरी-सा दहाड़ा करता था,
अंगारों-सा जिस्म जलाकर,
खुशहाली के सपने देखा करता था।
कर सकता जो मैं वो कर चला,
अनल पर भी खाली पग चला,
नियति से भी मैं लड़ चला,
ऐ माँ, तेरी आन-बान-शान के ख़ातिर
प्राण हथेली पर रख चला।
पर अब और सहन न होता है,
देख! प्राण झाँक कर रोता है,
लहू में लिपटे शरीर से,
शिथिल पड़े इस काया से,
अब और कहाँ कुछ होता है।
रक्त से सना गात लेकर,
सीने पर शौर्य का छाप लेकर,
तिरंगे में लिपटा हुआ मैं
थक कर, गोद में तेरी पड़ा हुआ
पूछता हूँ मैं कुछ सवाल
आखिर डरती रहेगी मानवता कब तक,
इस कुटिल समाज से?
किसका गौरव, किसका श्रृंगार
बचेगा लड़ने कल और आज से?
अब और न देखा जाता है,
माँ, यह समर खत्म क्यों नहीं हो जाता है?
यह समर खत्म क्यों नहीं हो जाता है?
बढ़िया
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