शायर है ये दिल,
कुछ न कुछ लिखता रहता है
सुनता तो कम ही है मेरी,
अक्सर कुछ न कुछ कहता रहता है।
जिन्हें कागज़ पे उकेरा,
वो तो आज भी सलामत हैं
बाकी रेत पे लिखे जज़्बातों को,
कब का समुन्दर बहा ले गया।
चाँदनी रात के तले,
मैं उस से सब कुछ कह डालता हूँ
और वो भी पगली बड़े सब्र से सुनती जाती है
काश! खुदा ने खामोशी को भी ज़ुबां बख्शी होती,
तो वो भी कुछ कहती,
मैं भी कुछ सुनता,
जनाब!
फिर बात ही कुछ और होती!
शहर में तो कदम-कदम पे शहरवालों का कब्ज़ा है,
पर मेरे गाँव में आज भी आबो-हवा आज़ाद है
जिसका शहर में सबसे ऊँचा अस्पताल है,
उसकी माँ गाँव में साल भर से बीमार है।
कहते हैं गाँव की हवा में भी जान होती है,
बहती हवा से ही किसान को धान की पहचान होती है
इस गुज़रती हवा में मेरी मिट्टी की खुशबू है,
ये वो दवा है, जो सिर्फ फकीरों पे ही मेहरबान होती है!
दूर खड़ा वो ऊँचा पहाड़,
मुझे अपने पिताजी की तरह लगता है,
खुद्दार इतना की अपने ऊपर उगी घाँस से भी बात नहीं करता,
पर खड़े-खड़े समूचे गाँव पे नज़र रखता है।
रास्ते से गुज़रते हुए, कई उदास मकान मिले
सबके चेहरों पे ताले लटके थे।
ये दुनिया भी बड़ी अजीब जगह है… शहर में लोग एक छत को तरसते हैं,
और गाँव में वही छत, रहनुमा खोजती फिरती है।
शहर में शेर भी कैद रहते हैं
और गाँव में बकरियाँ भी बेफिक्र!
पर ज़माने को पिंजरे की इस कदर आदत हो चुकी है,
कि बंद डिब्बों में सफर करने में लोग शान मानते हैं।
लोग समझते ही नहीं,
चाहे सोने का ही क्यों न बना हो,
बाज़ कभी पिंजरे में साँस नहीं लेता।
अब शाम ढल रही है,
मेरी ट्रेन घने कोहरे में फिसलती जा रही है,
माना ज़िन्दगी ट्रेन की तरह है- मंज़िल पे पहुँचना है, ज़्यादा देर कहीं रुक नहीं सकते।
पर खूबसूरत रास्तों से गुज़रते हुए, हर स्टेशन पर थोड़ा ठहरते हुए
हँसते, गाते, मिलते, बिछड़ते हुए
कम से कम अपनी रूह को आज़ाद तो रख सकते हैं
कम से कम…
अपनी रूह को आज़ाद तो रख सकते हैं न।
~आदर्श भारद्वाज
आर. आई. टी.,बैंगलोर
रेत पे लिखे जज़्बातों को,
कब का समुन्दर बहा ले गया… सुंदर कविता!
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