हमारा देश ‘भारत’ विश्व गुरु रहा है, भारतीय दर्शन का आज भी विश्व में उच्चतम स्थान है और यदि हमें भारतीय मानस को समझना हो तो हमें सर्वप्रथम अपने वाङ्गमय को जानना होगा जिसमें उपनिषद् अनिवार्य है, क्या है उपनिषद्?
उपनिषद् स्वयं को पहचानने की यात्रा है क्योंकि उपनिषद् जो दिखाई देता है उसकी बात करता है, वो बाह्य जगत की बात नहीं, भीतर के जगत की बात करता है और भीतर को जाने बगैर मनुष्य के दुख, शोक, भय और भ्रम का कोई अंत नहीं हो सकता है इसलिए उपनिषद् मनुष्य के सत्य और सुख के खोज का उत्तर है; उपनिषद् मनुष्य के द्वारा दुख से, भय से, बंधन से निरंतर किए जा रहे संघर्ष का उत्तर है; उपनिषद् मनुष्य के भीतर उमड़ रहे विडंबनाओं, विरोधाभास और जीवन में उठ रहे नित्य नए प्रश्नों का उत्तर है। यदि स्वयं को पहचानना हो तो उपनिषद् एक अनिवार्य प्रश्न बन जाता है क्योंकि किसी भी दूसरी चीज़ के ज्ञान से पूर्व हमें स्वयं का ज्ञान होना चाहिए… और क्या सच में हमें स्वयं का ज्ञान है?
इतना सब कुछ है हमारे वाङ्गमय में, फिर हमारा वर्तमान भारतीय समाज क्यों इनसे दूर नज़र आ रहा है? इसके कई कारण हो सकते हैं जिनमें प्रमुख हैं संस्कृत भाषा का ज्ञान न होना, अच्छे गुरुजन सुलभ उपलब्ध न होना इत्यादि। इन कारणों को दूर कर उपनिषद् के ज्ञान को हिन्दी भाषा के माध्यम से हर भारतीय तक पहुंचाने का कार्य करती है ― नाट्य आधारित धारावाहिक ‘उपनिषद् गंगा’ स्वामी तेजोमयानंद (प्रमुख – चिन्मय मिशन) की कल्पना तथा चंद्रप्रकाश द्विवेदी द्वारा निर्देशित यह धारावाहिक भारतीय दूरदर्शन के लिए इतिहास में उन चुनिंदा धारावाहिकों में शुमार है जिन्हें बड़े शोध के बाद तैयार किया गया है। इसका प्रसारण डी.डी.वन पर १२ मार्च २०१२ को शुरु हुआ और यह कुल ५२ भागों का संकलन है। यह नाट्य आधारित धारावाहिक हमारे सामाजिक जीवनचर्या, रीति-रिवाज, वैवैदिक विचार तथा नैतिकता आदि की परासंग्कता पर प्रकाश डालता है।पहले चार भागों में वैदिक ज्ञान मूल्यों को प्रस्तुत किया गया है, अगले १८ भागों में व्यक्ति एवं समाज के गुण, कर्म, विचार, कर्तव्य एवं उनके अधिकारों को दर्शाया गया है। इस प्रकार ज्ञान का एक मज़बूत आधार बनाने के बाद अगले २० भागों में संपूर्ण उपनिषद् के ज्ञान को कर्मवार ढंग से हमारे समक्ष रखा गया है और बाद के ९ भागों में उन कदमों का उल्लेख है जिन्हें विवेकानुसार उपयोग में ला स्वयं का साक्षात्कार कर सकते हैं, ब्रह्म के करीब पहुंच सकते हैं। आखिरी भाग भारत के गौरवशाली परंपरा और ज्ञान को अभिव्यक्त करती है जो हमारे देश का गौरव है, जिसकी हमेशा प्रशंसा होती है। नाट्य के जुड़े विषयों से उपनिषद् श्लोकों के गायन के साथ हर भाग की शुरुआत होती है जिनमें सभी नाट्यकार इन मंत्रों का उच्चारण करते हैं और नाट्य का अंत भी उपनिषद् के श्लोकों के साथ होता है। धारावाहिक में उच्चारित मुख्य श्लोक को ईशोपनिषद् से लिया गया है वो है ―
“हिरण्यमयेन पात्रेन सत्यास्यापिहितम् मुखं।
तत्वं पुषन्न पावृगु सत्य धर्माय दृष्टये।।“
(हे सबका भरन पोषन करने वाले परमेश्वर, सत्यस्वरुप सर्वेश्वर, आपका श्रीमुख ज्योतिर्मय सूर्यमंडल पात्र से ढका हुआ है। आपकी भक्तिरुप सत्यधर्म का अनुष्ठान करने वाले मुझको अपने दर्शन कराने के लिए अपना आवरण हटा दीजिए।)
यह धारावाहिक किसी विशेष वर्ग के दर्शकों के लिए नहीं है, बल्कि ये सभी को अपनी ओर खींचता है। एक आस्तिक जिसे धर्म पर पूरी श्रद्धा हो उसे धर्म के गूढ़ रहस्यों से अवगत कराता है; तो नास्तिकों को बतलाता है कि स्वयं का ज्ञान ही ईश्वर का ज्ञान है, स्वयं पर विश्वास ही आस्तिकता है। वर्षों से घर कर गई अंधविश्वास और रुढ़ियों को तोड़ने का प्रयास करती है तथा प्रश्न करने का अधिकार भी देती है। वेद, उपनिषद् का ज्ञान किसी धर्म विशेष के लिए नहीं बल्कि संपूर्ण मानव जाति के लिए है। मानव जीवन के १६ संस्कार, वर्ण व्यवस्था, जीवन के ४ आश्रम, अर्थ, काम, धर्म, मोक्ष आदि के मूल उद्देश्य एवं मूल अर्थ को दिखलाता है ये धारावाहिक। जब हम सनातन धर्म को समझना चाहते हैं, तो कई कड़ियाँ टूटी हुई नज़र आती हैं, इन टूटी कड़ियों को जोड़ अपने धर्म को एक कर्म में प्रस्तुत करने का प्रयास हैं ‘उपनिषद् गंगा’। उपनिषद् वर्षों पहले लिखे गए है, फिर भी वर्तमान समाज को उनके अध्ध्यन की ज़रूरत है क्योंकि आज भी हमारे मूल प्रश्न वही हैं जो बरसों पहले थे ‘मैं कौन हूँ?’, ‘दुःख का कारण क्या है’, ‘आत्मा क्या है’, ‘ब्रह्मा क्या है’ आदि।
मुख्यतः २३ अभिनेताओं एवम् अभिनेत्रियों ने अलग-अलग भागों में मुख्य किरदार (सूत्रधार एवम् नटी समेत) का अभिनय किया है।उपनिषद् के श्लोकों और मन्त्रों का गान कर्णप्रिय और दृश्य बहुत ही आकर्षक बन पड़े हैं। साथ ही सभी श्लोकों के मूल स्रोत और अर्थ दोनों की जानकारी उपलब्ध कराती है। विभिन्न कालों में सामाजिक परिवेश, पहनावा, शिल्प और सौन्दर्य का चित्रण खूबसूरती से किया गया है। संवाद सरल किन्तु अपनी ठोस बातों को कह जाने में सफल है। सारे भाग यू-ट्यूब पर उपलब्ध हैं। अपनी संस्कृति को करीब से जानने का एक बेहतरीन मौका देती है धारावाहिक ‘उपनिषद् गंगा’। बहुत से संवाद अंदर हलचल पैदा कर देते हैं। हमें सोचने को मज़बूर कर देते हैं और आगे के भाग को देखने के लिए उत्साहित भी करते हैं। वैसा ही एक सवांद हैं भाग ४५ में नटी और सूत्रधार के बीच, जिसका उल्लेख यहाँ किया जा रहा है…
नटी : सेवा भी बहिरंग साधना है।
सूत्रधार : बहिरंग साधना यानि?
मन शुद्ध करने के लिए जो अनुष्ठान होता है, उसे बहिरंग साधना कहते है।
जैसे – दान, सेवा, जप, तप, तीर्थ, विचार आदि।
तो क्या हमें रोज़ यज्ञ करना चाहिए?
नहीं यज्ञ का अर्थ होता है ब्रह्मा की उपासना। यदि हम अपने कर्तव्यों को ही ब्रह्मा की उपासना समझ कर पूरा करें तो वही यज्ञ है।व्यष्टि या समष्टि के लाभ के लिए अग्नि-क्रिया के द्वारा जो ईश्वर की आराधना की जाती है उसे ‘यज्ञ’ कहते हैं, उसे ‘हवन’ या ‘होम’ भी कहते हैं, हर रोज़ नित्य-क्रिया के रूप में उसे ‘संविदा दान’ या ‘अग्निहोत्र’ भी कहते हैं। वास्तव में ज्ञानरूपी अग्नि में अहंकार की आहुति देकर अज्ञान का नाश करना ही यज्ञ का अंतिम लक्ष्य है।
यानि कर्म ही पूजा है! तो व्यक्ति साकार ईश्वर की पूजा क्यों करता हैं?
अपने आराध्य की मूर्ति में ईश्वर भाव रखकर आराधना करना ही पूजा है। जैसे देश के ध्वज का कपड़ा और उससे चित्रित रंग और आकार देश के आदर्शों का प्रतीक है।
इसलिए मूर्तिपूजन को प्रतीकोपासना भी कहते है। इससे मन शुद्ध होता है।
और दान?
दरिद्र को नारायण समझ प्रेम और आदर से जो सेवा की जाती है, उसे दान कहते हैं। यह भी फल या यश के लिए नहीं बल्कि नि:स्वार्थ भाव से करने से ही मन शुद्ध होता है।
पर जिसके पास देने को कुछ हो ही न वो क्या दान करेगा?
दान का सम्बन्ध धन से तो नहीं है! दूसरों को समय देना, क्षमा देना, ज्ञान देना, ये भी तो दान हैं। मीठे शब्दों में दूसरे का सहयोग भी दान है।
तो फिर तप, जप, व्रत, तीर्थ और विचार क्या हैं?
महान लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए शारीरिक या मानसिक कष्ट को सहन करना तप है। तप का अर्थ है मन और इंद्रियों की एकाग्रता। जप का अर्थ है एक मंत्र का आवर्तन करना, निरंतर भगवन के नाम को स्मरण करने को नामस्मरण भी कहते हैं। जप और नामस्मरण की उपासना सभी महजबों में प्रचलित है।
और तीर्थ?
पवित्र स्थान की यात्रा, वहाँ जाकर दर्शन, पूजा, तीर्थस्नान, दान और सत्संग करना ही तीर्थयात्रा है।
अब व्रत या उपवास?
व्रत और उपवास दोनों अलग-अलग वस्तु है। व्रत यानि संकल्प जैसे मौन व्रत।
व्रत में क्या होता है नटी?
व्रत से जिद्दी और उद्दंड मन अनुशासन में रहता है। ये चंचल मन व्रत संकल्प के सहारे ही आध्यात्म की गहराइयों तक पहुँचता है।
और उपवास क्या होता है?
निश्चित समय के लिए खाने पीने का संयम या त्याग करके भगवन की चिंतन करना ही यथार्थ रूप से उपवास है।
फिर उपासना क्या है नटी? जैसे शिव उपासना, विष्णु उपासना आदि?
उप यानि पास में, और वास या आसन माने बैठना। उच्च आदर्श या भगवान के सामने या बैठने को ही उपासना या उपवास कहते हैं।
अब अंत में विचार का अनोखा उपाय भी बता दो।
प्रिय-अप्रिय, क्रोध या उत्तेजना, महत्वाकांक्षा, ईर्ष्या आदि जब मनुष्य को आध्यात्मिक पथ पर बढ़ने से रोकते हैं, विचार इन सब समस्यओं को सुलझाता है।
यानि वासनाओं से भरे मन को शुद्ध करने के अनुष्ठानिक और व्यावहारिक तरीकों को ही बहिरंग साधना कहते हैं।
– विक्रम कुमार पोद्दार, असैनिक २०१०
I like Upanishads very much.
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Thanks
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Is Sarjana getting published these days?
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Yes sir. The latest magazine can be found on https://bitsarjana.com/magazine-archive/
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उपनिषद गंगा धारावाहिक के सभी भाग YouTube पर उपलब्ध नहीं हैं। क्या कोई अन्य वेबसाइट पर उपलब्ध हैं? किसी प्रकार इन्हें देखने का कोई अन्य साधन है?
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आप DD रेट्रो पर सारे भाग देख सकते हैं।
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