आँधियों से लगातार उलझता रहा मैं,
तूफ़ानों ने रौंदा मुझको,
जलजलाओं को आधार बना,
फिर भी अचल रहा मैं।
बिजलियाँ मेरी सहगामिनी बनी
उल्कावृष्टियों के आघात सहकर भी,
ज्वालामुखियों के मुहाने पर भी,
तन कर खड़ा रहा हूँ।
ज्वारों ने बिखेरा मुझको,
फिर भी पुनः समेटा खुद को,
हिम शीत भी मुझे जड़वत न कर सकी,
मुझ अमर्त्य वीर मनुपुत्र को।
मैं भी बन सकता था शुतुरमुर्ग,
छिपाकर सिर रेत में,
करके छद्म ढूंढ़ने का,
ज़मीनी सच्चाईयों को।
या फिर बन सकता था डायनासोर,
भयंकर, भयावह, शक्तिमान,
पर उसे भी मिटना था,
कालक्रम के लंबे चक्र में।
या फिर बन सकता था,
किसी किले की प्राचीर,
शायद झेल तो लेता कालक्रम को,
किंतु व्यर्थ! रहता अचेत, जड़, अचल।
किंतु आज मेरा सामना है,
उस महादैत्य से,
जो मेरी ही अनुकृति है,
जो मेरी ही प्रकृति है।
छीन लेगा मेरा सबकुछ,
मिटाकर मेरा अस्तित्व समस्त,
जगा कर मेरी आसुरी वृत्तियां,
करेगा मेरी सद्वृत्तियों को परास्त।
उजड्ड कबीलाई इस समाज में,
घने जंगलों के इस युग में,
जो अभी-अभी उगी हैं,
पर हैं इतनी घनी कि पूछो मत।
मैं इसके घने अंधेरे में,
खुद ही को पहचान नहीं पाता,
या मेरी समस्त स्मृतियाँ
हुई हैं धुमिल।
या है यह कोई विस्फोट,
जिसके चमक से चकाचौंध हुई आँखें।
राम ने भी झेला वनवास,
पांडवों को भी मिला अज्ञातवास,
परंतु यह मेरा एकाकीवास,
सदा के लिए अभिशप्त, अतृप्त, संतप्त।
आज मैं झांकता हूं बगलें,
शायद कोई ऐसा आएगा मसीहा,
बचा लेगा मुझे इस संत्रास, यातना से,
परंतु मेरे चारों ओर हैं,
केवल,
सहस्त्रफण!
श्रेय – श्री रविशंकर प्रसाद
यांत्रिकी अभियंत्रण
सत्र – १९९८