दरवाजे के चौखट पर खड़ी थी लड़की
देख रही थी बड़े ध्यान से
पथ को, उस पथ को
जिस पर कुछ क्षण पहले ही गए थे उसके पिता दूर परदेस।
आँखों में आंसू थे,
कह रही थी अपनी व्यथा
नींद नहीं थी, उन आँखों में
रात भर गुड़िया सोई नहीं।
इस उम्र में है क्या परेशानी?
पता गए है काम से दूर परदेस
वह काम है कौन-सा ?
सरकारी नौकर थे,
आ रहा था चुनाव
गए थे अपनी उपस्थिति दर्ज कराने।
चिंता थी गुड़िया को,
बाबू जी जा रहे है उस स्थान पर
जहां रहते झाड़ियों में नक्सली
पेड़-पौधे सब कहते इनके खौफ की जुबानी ।
बाबूजी से है इनका बैर
है क्योंकि ये सरकार के इक्के।
भारी डर था गुड़िया को
अम्मा बीमार,
दोनों बहने है ससुराल में,
भाई है छोटा, हंसता-खेलता। वह क्या जाने दुनिया की नीति।
दूर गांव से झोपड़े में था,
नन्ही परी का घर
सपने सजाएं रखी थी
उसने अपनी आँखों में।
पर न जाने काल गति कैसे आयी?
हवा के झोंके के भांति
सब कुछ उड़ा ले गई।
बीत गए है अठारह दिन,
नहीं आई खबर बाबू जी की।
खाँस रही थी अम्मा लगातार,
भूमि पर गिरा पड़ा रो रहा है बालक, सबने खो चुकी है आस।
पर,
न जाने क्यों
गुड़िया लगाए बैठी है आस।
इन आँखों में अभी-भी रह गए
है सपने, कर रही है इंतजार कि उस पथ से आ जाए बाबू जी।
लड़की की आँखों में है
बेबसी।
कौन रखेगा अब उसके सर पर हाथ? ढूंढ रही है जवाब,
क्षण – प्रतिक्षण घुट रही है।
क्या करुं इस बेबसी का?
हो गई हूँ दीन।
क्या है नक्सलवाद? क्या है?
पूछते-पूछते थक गई, जवाब नहीं मिला।
अब आँखों में नहीं है
सुन्दर, कलात्मक सपने
बल्कि
बस बेबसी है।

आकांक्षा इरा
असैनिक अभियंत्रण
सत्र-2019

One thought on “बेबसी

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