रात अपने अंधकार में न जाने कितनी बातों को समेटे रखती है। जब हर ओर सन्नाटा होता है…और इसी सन्नाटे में कई ख्वाब खिलते हैं किन्हीं कच्ची आँखों में।

वह भी कोई ऐसी ही रात थी, जब उसकी नींद करवटों में कट रही थी और आँखों को सपनों ने निगल रखा था। करवटें…जो कहीं न कहीं खाट (डोरियों से बनी चारपाई ) के कारण ही थें, पर वे धुंधले ‘ख्वाब’…जो उसकी नींदों को हर रोज निगल रहे थें, न जाने ख्वाब ही थे या समय के साथ ढलती कोई उम्मीद!

रात ढलने ही वाली थी। अंधेरा भी कुछ पल का मेहमान था कि अचानक सड़कों पर बैलगाड़ियों के हलचल ने उसे जगा दिया। आँखों को मलती वह अपने खाट से उतरी। दरवाज़े को खोलकर बाहर का नजारा देखा। शायद उसे वक्त का अंदाजा हो गया था। अंदर आकर घर के कामों में लग गई। कुछ देर बाद जूठे बर्तन लेकर बाहर आई और नल के सामने धोने लगी। तभी पीछे से एक आवाज आई, “कैसी हो मीरा?”। उसने जवाब देते हुए कहा, “सब ठीक काकी”। आस-पास कुछ औरतें भी थी जो यह सब देख रही थी, पर ये सब उनके लिए कोई नई बात नहीं थी। सभी अपने-अपने कामों में लगे थे। कुछ को मीरा से शायद ज्यादा ही सहानुभूति थी जो बातें कर रही थीं, “इस बिन माँ की बच्ची की न जाने कितनी कठिनाइयाँ हैं”। उनकी बातों में सहानुभूति थी या उपहास, यह समझना भी किसी कठिनाई से कम न था।

मीरा अपने काम में मग्न थी। तभी आँगन में रखे रिक्शे को बाहर ले जाते हुए एक व्यक्ति ने कहा, “बेटा मैं जा रहा हूँ, सागर का ख्याल रखना”। वह तुरंत हाथ धोकर अंदर गई; अखबार के पन्नों में लिपटी रोटियाँ और टिफिन में भरी सब्जियाँ, अपने पिता की ओर बढ़ाई। वह सब कुछ रिक्शे में रख निकल पड़ा और मीरा अंदर जाकर अपने कामों में लग गई।

उसके हाथों ने कई भार उठाए थे ज़िन्दगी के। शायद उन हाथों में अभी इतनी ताकत न रह गई थी, तभी तो किसी वक़्त सारे घर का भार उठाए वे हाथ अब एक बाल्टी तक उठा नहीं पा रहे थे। हर दो कदम बाद उसके पाँव कांप-कांप जा रहे थे। बाल्टी ला उसने नल के पास रख दिया। सामने बने चबूतरे पर बैठी वह सुस्ता ही रही थी कि तभी अचानक पीछे-से दो नन्हें हाथों ने उसके कंधों को जोरों से जकड़ लिया। उसे समझते देर न लगी कि वह कोई और नहीं बल्कि उसका सागर है। वह धीरे-से सागर के हाथों को पकड़कर अपने सामने लाई और गले से लगा ली। दोनों खिलखिला-खिलखिलाकर एक-दूसरे से बातें करने लगते हैं। सूरज तो पहले ही निकला  था, पर उसकी लाली अब बिखरनी शुरू हुई थी। वह ६ साल का बच्चा जागकर अपनी बहन को जगाने आया था। सुबह की खिलखिलाहट तो जैसे हवाओं में फैल-सी गई थी। सुबह और भी प्यारा हो गया था, और साथ में सूरज की लालिमा!

मीरा बार-बार चुल्लू में पानी भरकर सागर के मासूम-से चेहरे पर छींटे मारती है, अपनी उँगलियों से उसके दांत साफ करती है, उसके हाथ-पैरों को धोती है, और फिर अपने दुपट्टे से उसके भीगे गालों को पोंछ देती है। वहीं सागर अपनी उँगलियाँ मीरा के खुले बालों में उलझाकर उनसे मस्ती में खेलने लगता है। कई बार मीरा उसे झिड़क देती है, फिर हल्की-सी मुस्कुराहट के साथ उसके छोटे-से चाँद को चूम लेती है। उसकी पूरी दुनिया तो अब जागी थी…बिल्कुल उसके आँखों के सामने।

रास्ते में बच्चे स्कूल जा रहे थे। मीरा भी तैयारियों में लग जाती है। इधर-उधर फुदकते सागर को भोजन के लिए बिठाती है, हर निवाले को फूँक-फूँककर उसे खिलाती है, और उसे सजाने-सँवारने में जुट जाती है। मीरा, जिसने शायद ‘माँ’ शब्द को ठीक से जाना भी न था, आज खुद एक माँ बन बैठी थी। माँ-सा वात्सल्य उसने जाना कहाँ से…कहना मुश्किल है! एक माँ की तरह वह सागर को स्कूल के लिए तैयार करती है, फिर साथ स्कूल के लिए निकल पड़ती है। जिसे वक्त ने इतने कम समय में इतना कुछ सिखा दिया था, उसे स्कूल जाते लोग हैरत भरी निगाहों से देखते हैं। नज़रे मिलने पर थोड़ा मुस्कुराते हैं, और फिर वापस अपने काम में लग जाते हैं।

ज़िन्दगी कम समय में ही बहुत कुछ सिखा देती है कभी-कभी…और साथ में ज़रूरत के हिसाब से हमारे रिश्तों के अर्थ…!

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