“अपनी असफलताओं को कभी भी अपने दिल तक जाने न दें, न ही अपनी सफलताओं को अपने मस्तिष्क तक।”

जापान के एक स्कूल में परीक्षाफल घोषित हुए, और बच्चों से कहा गया कि अगले दिन अपने रिजल्ट पर सभी को अपने परिवार की मुहर लगा कर लानी है। यह आज के ज़माने में अभिभावकों के ‘हस्ताक्षर’ लेने जैसा था। ऐसे में प्रतिभा के धनी; कुछ रट्टूओं को तो इससे फर्क पड़ने वाला था नहीं, पर कुछ सामान्य बच्चे ज़रूर परेशान हो गए। और इन्हीं परेशान बच्चों में से एक के दिमाग में एक उपाय सूझा। उसने ‘साईकिल के पैडल कवर के रबर’ से अपने परिवार-चिह्न के मुहर की प्रति बना ली और आसानी से पिताजी के डाँट से बच गया। वह पकड़ा तब गया जब वह दूसरे बच्चों की भी मदद करने लगा। यहीं से मिलता है प्रमाण – ‘होंडा’ की प्रतिभा का।

पढ़ाई में औसत होने के बावजूद होंडा शुरू से ही जिज्ञासु स्वभाव के थे। 17 नवंबर, 1906 में जन्में सोइशिरो होंडा, आगे चलकर दुनिया के प्रमुख उद्योगपति बने। होंडा का प्रारंभिक जीवन जापान के मशहूर माउंट फुजि के तल में बसे एक छोटे से गाँव टेनरयु में बीता। अपने गाँव में ही पहली बार उन्होंने एक कार को देखा और फिर कभी उसके तेल की महक को भुला न पाए। होंडा के पिताजी की साईकिल की दूकान थी। यहीं से होंडा का मशीनों के प्रति लगाव बढ़ा।

15 साल कि उम्र में बिना किसी औपचारिक शिक्षा के ही होंडा ने अपना घर छोड़ नौकरी की तलाश में टोक्यो जाने का निश्चय कर लिया। वहाँ एक ‘गराज़’ में उन्होंने कार मैकेनिक का काम किया और 22 साल की उम्र में अपने घर वापस आकर अपना गराज़ खोला। बाद में उन्होंने रेसिंग में भी हाथ आज़माया, पर एक भयानक हादसे के बाद; जिसमें उनकी एक आँख भी ख़राब हो गई, रेसिंग छोड़ दी।

वह 30 का दशक था – विश्वव्यापी मंदी। दुनिया के अधिकांश देशों की तरह जापान भी इसके दौर से गुज़र रहा था। उन्हीं दिनों होंडा ने एक छोटा-सा वर्कशॉप बनाया, जो कारों के इंजन के लिए ‘पिस्टन रिंग्स’ बनाने का काम कर सकता था।

सोइशिरो होंडा

“सपने ही तो है, जिस पर हर इंसान को बराबर का अधिकार प्राप्त है और जिसे कोई छीन नहीं सकता।”

पिस्टन रिंग बनाने के लिए वह रात-दिन जुटे रहते थे और कई बार तो घर लौटने की बजाय अपनी वर्कशॉप में ही सो जाया करते थे। इस योजना पर काम करने के दौरान ही उनकी शादी हुई और पूंजी जुटाने के लिए उन्होंने अपनी पत्नी के गहनों तक को गिरवी रख दिया। आखिरकार वह दिन भी आया जब उन्होंने पिस्टन रिंग तैयार कर ली और टोयोटा के पास इसका सैंपल लेकर पहुँचे। लेकिन उन्हें यह जानकर बहुत धक्का लगा कि उनकी यह खोज कंपनी के मानकों पर खरा नहीं उतरता है। वह मायूस होकर घर लौट आए। अब उनके पास एक धुँधली-सी उम्मीद के अलावा कुछ भी नहीं था।

अपने ड्रीम प्रोजेक्ट के खारिज़ कर दिए जाने के बावज़ूद उन्होंने हार नहीं मानी। असफलता पर शोक मनाना ― यह उन्होंने सीखा ही नहीं था। वह उठे और वापस अपने लक्ष्य की ओर बढ़ चले। दो साल तक पिस्टन रिंग के नमूने को बार-बार सुधारने और बार-बार नकारे जाने के बाद अंततः उन्हें टोयोटा के साथ एक कॉन्ट्रैक्ट हासिल करने में कामयाबी मिल ही गई। परेशानियों का दौर अभी खत्म नहीं हुआ था। कॉन्ट्रैक्ट मिलने के बावज़ूद ऑटोमोबाइल कंपनी को सप्लाई देने के लिए होंडा को एक फैक्ट्री की जरूरत थी। द्वितीय विश्व-युद्ध छिड़ चुका था और उस दौर में फैक्ट्री खड़ी करने के लिए कच्चा माल मिलना दुर्लभ था। इसके बावज़ूद उन्होंने हार नहीं मानी और एक अनूठी ‘कंक्रीट मिक्सचर मशीन’ बना डाली, जिससे वह कम-से-कम लोहे का प्रयोग करके भी फैक्ट्री को खड़ी कर सकते थे। काफ़ी मेहनत के बाद फैक्ट्री तैयार हो गई। होंडा पिस्टन रिंग के उत्पादन के लिए बिल्कुल तैयार ही थे; कि जापान पर अमेरिकी जहाज़ों की बमबारी में उनकी फैक्ट्री ध्वस्त हो गई। किसी तरह से उन्होंने दूसरी बार ढाँचा खड़ा किया और दूसरी बार भी अमेरिकी बमबारी ने फैक्ट्री तबाह कर दिया।

उस युवक ने तीसरी बार फिर से कोशिश की परंतु द्वितीय विश्वयुद्ध अब इतना फैल चुका था कि इस्पात मिलना मुश्किल ही नहीं, असंभव हो गया था। ऐसा लग रहा था कि उनके सपने भी फैक्ट्री के साथ मलबे में दब गए है। लेकिन वे अब भी हार मानने को तैयार नहीं थे। जीवटता! उन्होंने अमेरिकी सैनिकों द्वारा फेंके गए पेट्रोल के खाली कनस्तरों को गलाकर इस्पात बनाने का तरीका ढूंढ लिया। यह कच्चा माल उनके सपनों को पूरा कर सकता था, लेकिन अचानक आई एक भूकंप ने उनकी फैक्ट्री और मशीनों को फिर से मलबे का ढेर बना दिया। अब ‘चौथी बार’ शुरुआत करने के लिए होंडा ने जंग समाप्त हो जाने का इंतज़ार किया। जंग समाप्त भी हुई लेकिन जापान परमाणु हमले से तबाह हो चुका था। इस युद्ध ने जापान की अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी। अब पिस्टन रिंग तैयार हो भी जाते तो कार खरीदने वाले ग्राहक ही नहीं थे।

होंडा की सबसे पहली मोटरसाइकिल

हकीकतन, उन दिनों पूरा जापान साईकिल पर चलने लगा था। सड़कों पर यह नज़ारा देख कर होंडा के दिमाग में एक अनूठा विचार आया! उन्होंने अपनी साईकल में घास काटने वाली मशीन का नन्हा-सा इंजन लगा दिया। नाममात्र का पेट्रोल खपत करने वाला यह इंजन साईकल को तेज़ रफ़्तार देता था। लोगों को यह आविष्कार काफी पसंद भी आया, लेकिन अब होंडा के पास इतने पैसे नहीं थे कि वह ऐसे वाहन को बाज़ार में पेश कर सके। ज़िन्दगी में कई मुश्किल राहों से गुज़र चुके उस युवक के दिमाग में एक विचार आया। उन्होंने जापान के लगभग 18000 साईकिल दुकानदारों को एक पत्र लिखा कि वह जापान को फिर से गतिशील बनाने में उनकी सहायता करें। उनका विचार इतना स्पष्ट था कि लोग उनकी सहायता के लिए आगे आने लगे और अपनी हैसियत के हिसाब से छोटी-छोटी रक़म भेजने लगे।

सुपरकब

आखिरकार होंडा ने “सुपरकब” नाम से एक हल्की मोटरसाइकिल बनाई। इसे जापान में हाथों-हाथ लिया गया। देश की जर्जर हालात सुधारने के लिए इसका निर्यात भी किया जाने लगा । क़माल की बात तो यह हुई कि होंडा की बनाई मोटरसाइकिल 1936 में अमेरिका तक में ‘टॉप-सेलिंग-टू-व्हीलर’ ब्रांड बन गई। नाक़ामयाबी और किस्मत के थपेड़ों से कभी हार न मानने वाले उस जापानी इंसान ने जंग में अमेरिका से हारने के बाद अमेरिकी कंपनियों को उनके ही घर में हराया। आज उनकी कंपनी होंडा कारों और टू-व्हीलेरों के संयुक्त रूप से उत्पादन के आधार पर विश्व में नंबर एक ऑटोमोबाइल कंपनी है। 1973 तक वे अपनी कंपनी में प्रेसिडेंट रहे और अगस्त, 1991 को उनका देहांत हो गया। अपनी असफलताओं को सपनों पर हावी न होने देने वाले सोइशिरो होंडा का एक कथन इस कंपनी के लाखों कर्मचारियों को हमेशा आगे बढ़ने का हौसला देता रहता है, और वह है:

“सफलता आपके कार्य का 1% है जो कि बाकी बचे 99% असफलता के कारण आपको हासिल होती है।”

होंडा की हौसले से भरी जीवन की कहानी आज भी लाखों लोगों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत है।

3 thoughts on “सोइशिरो होंडा: हौसले और हिम्मत की उड़ान

  1. सर्जना समूह को धन्यवाद करना चाहूँगा ‌‍‍‍
    इस प्रकार की अद्भुत,अनसुनी,प्रेरणादायक
    कहानियाँ हमारे बीच प्रस्तुत करने के लिये।

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