आंखे फकत ढूंढती रहती इश्क हर गलियारों में,
चार दिवारी घुट कर रहती बन्द एक आशियाने में।
मुस्कुराकर वो तालीम दे गई हरकते हमारी देख कर,
इश्क रश्म समझा हमने आशिक-परवानों को भेट कर।
आंखो में नुर झलकती जैसे ईद की मेहताब है,
लफ्ज़ होठो से निकलते जैसे शरबती शराब है।
किस्मत की शाम को जब आंखो से दीदार हुआ,
सबने आंखें सैकी उसपर फिर शब्दों से प्रहार हुआ।
चमक रही थी आंखे उनकी आंसुओ के सैलाब से,
छलक पड़ी अब उनके गालों पर बूंदे शर्मसार से।
चार दिवारी फिर सिमट गई, बदले का विचार हुआ,
कलम-किताबों की तर्ज पर हथियारों से वार हुआ।
मासूम नंदिनी से जब वीरांगना का अवतार हुआ,
इंतजार में अब तक सेहमा इश्क, फिर दुश्वार हुआ ।
– कुणाल प्रशांत
उत्पादन अभियंत्रण
Very good expression!
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