निर्मम सिमट सिकुड़ वह सोया था,
अँधेरे चौराहेे की चौखट पर वह खोया था।
चादर ओढ़े सिर छिपाए,
पाँव फिर भी निकले थे,
सनसनाती हवा चली,
पैरों को छू, निकली थी।
काँप गए बदन मेरे देख वह एहसास,
क्या बीती होगी उस पर जब टूटे होंगे जज़्बात?
मन न माना,
जी मचल उठा पूछने को बात,
देख,
फिर रह गयी,
यह मेरे मन की बात,
क्यों बैठे हो,
क्या हुआ है,
कहाँ से आए हो?
कहा न एक शब्द,
पर समझ गया क्यूँ है वह स्तब्ध।
शायद भूखा था,
आँखें बन्द कर रो रहा था,
घुट-घुट कर अंदर ही अंदर खुद को खो रहा था।
आँखें नम,
रूखे बदन,
सिर पर थकान,
मानो था सालों से वह बड़ा परेशान।
पुरानी मैली धोती,
कमीज़ गंदी-सी लिए,
शायद जिम्मेदारियाँ उसने सीने में थीं दबी हुईं।
न जाने कितनों का हाथ वही,
शायद बेटे का,
पति का,
अरे नहीं!
वह तो पिता का हकदार था,
घर कैसे जाऊँ,
ये सोचा उसने शायद सौ बार था।
घर को क्या ले जाऊँ,
यह सोच वह हैरान था,
काम की तलाश में,
शायद,
भटका वह इंसान था।
– कुणाल प्रशांत
उत्पादन अभियंत्रण
सत्र- २०१९