जब, कसने लगी थी
वो शासन की जंजीर
गोलियों से भिड़ गए
आदिवासियों के तीर ।।
“आदिवासी अन्याय सहेंगे”
अंग्रेजों की ये भूल थी
और वहीं से फूट पड़ी
प्रथम रश्मियाँ हूल की ।।
जंगल-जंगल सभी ओर
बस यही सुनाई देता था
“अंग्रेजों ! बहुत हुआ”
पत्ता-पत्ता कह देता था ।।
सिद्धो-कान्हो ने तीर से
अंग्रेजों का भ्रम तोड़ा
वन के बेटों ने फिर से
था वन-बेटों को जोड़ा ।।
चाँद-भैरव भी बढ़कर
आगे सीना कर देते थे
तीरों से ही दुश्मन का
कठिन जीना कर देते थे ।।
सभी हाथ में तीर-धनुष
ही बस लेकर निकले थे
पर सबके तीरों ने जाने
कितने गोली निगले थे ।।
एक ओर से तोपें आयीं
एक ओर से खाली छाती
जाने कितने गोले खाए
पर छाती बढ़ती जाती ।।
वन के बेटों से उस दिन
अंग्रेजी सेना घबराई थी
आसमान ने भी देखा था
धरती तक भी थर्रायी थी ।।
और शत्रुओं के दल भी
नहीं कर पाए थे प्रतिरोध
धनुष और तीरों को जाने
उस दिन कैसा हुआ क्रोध ।।
उस दिन फिर अंग्रेजों ने
छल को ही अपनाया था
तभी तो उनकी सेना को
वो विजय मिल पाई था ।।
धन्य-धन्य हों तीर-धनुष
धन्य वो सब वन के बेटे
धन्य हो गयी धरती वह
सब पुत्र जहाँ अंतिम लेटे ।।
~संजय कुमार हाँसदा ‘निदाघ’
असैनिक अभियंत्रण, सत्र १०१३