कंठ खोल ,सुर नही,
स्वर की गति को थामा हैं।
उल्लास मन कुछ बोल पाए
यह उदास मन ने न माना हैं।
हर क्षण ये चिर मन के,
रंग ही फीके पड़ गए।
हम बच्चे ही अच्छे थे,
यूँ ही क्यों आगे बढ़ गए।
ये काल के कपाल की चाल से,
सब रुसवाई है ,
हमने भी कभी बचपन में ,
डर-डर फुलजलाई है।
आए मन के अंधकार को ,
प्रकाश से संगम कराए,
चलो एक ही दिन के लिए सही,
हर्षोल्लास मन से दीये जलाएं।
~आदित्य सागर
यांत्रिकी अभियंत्रण , प्रथम वर्ष