बापू के जन्म दिवस पर, राजधानी दिल्ली के राजघाट पहुँचने के लिए उद्वेलन भरा किसान आन्दोलन।
प्रस्तुत कविता में उन अन्नदाता किसान पुत्रों के मन की पीड़ा को मरहम का उपहार दिलाने के उद्देश्य से ही किसी महात्मा के जन्म दिवस की छायावादी अंदाज में व्याख्या हुई है, जो आज की ताजी खबर होगी ।
भाषा अपनी अपनी ,जुबान रहे मीठी।
तुम भी जाने रह गए बापू,दिल्ली के ही होकर।
लोकतंत्र की रखवाली क्या राजघाट में सो कर?
राह निहारे कभी नहीं थकते बापू के बच्चे।
तुम कैसे थक जाते बापू वीर बहादुर होकर?
कुँभकरण की गहन नींद से, हमें जगाने वाले
तुम्हें जगाऊँ कैसे बापू आँखें से रो-रो कर?
असमंजस में पड़े हुए, रोएँ या आँसू पोछें,
बीती बात भुलाकर क्यों न आगे की हम सोचें।
अन्नपूर्णा जब भूखा सोए, क्या होगा तब बोकर?
भारत की रखवाली करते राजघाट में सोकर ?
जय जवान और जय किसान का नारा इतना ढीला क्यों?
कड़ी चौकसी में भी, कंगाली में आटा गीला क्यों?
शहद चाटने वालों को क्या मिलता पंख जलाकर?
तुम भी जाने रह गए बापू, दिल्ली के ही होकर।
एक बरस के बाद मिले, फिर बरस बाद ही आओगे।
तब भी तुम आजादी को लड़ते कटते ही पाओगे।
एक सफर के साथी रह गए बेगाने से होकर
तुम भी गाँधी बन कर रह गये, दिल्ली के ही होकर ।
ग्रामों का उद्योग शहर में जब से आया,
अपने ही खेतों में हमनें जहर उगाया।।
खेतों का राजा ही बिखर गया कर्जे मे दबकर
भारत की रखवाली करते ,राज घाट में सोकर ?
महात्मा ,गाँधी, बापू ,तुम्हें पुकारूँ मोहन दास,
जन्म दिवस पर प्यासी जैसी, लगती मन की बात ।।.
जाने किसको क्या मिल जाता सूखा नयन भिंगोकर।।
तुम भी जाने कैसे हो गए दिल्ली वाले होकर!
आप पाठकों का अाभारी।
ए के सिंह सिंदरी
शिक्षक सह पत्रकार दैनिक जागरण
सत्य कथन
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