ऊपर आकाश, नीचे आकाश
बीच में थोड़ी जमीं बची थी
जहाँ अचंभित खड़ा था प्रखर प्रकाश !!!

ऐसा लग रहा था मानो यथार्थ की कड़वाहट, रोज़ के कोलाहल को छोड़ किसी काल्पनिक दुनिया में आ पहुँचा हूँ, हक़ीकत में कहीं ऐसा होता है भला ?, ऐसा लग रहा था मानो सोनपरी ने अपनी अन्य नन्ही परियों के साथ मिल कर बनाया और सजाया था वह मनोरम दृश्य। वहाँ बादल और सूर्य की युद्ध में बादल सूर्य पर हावी था, दिनभर में एक से दो बार ही सूर्य-देव दर्शन दिया करते थे। मौसम हर 5 मिनट में अपना अंदाज़ बदलता रहता। कभी कड़ाके की ठंड होती तो कभी मौसम सामान्य रहता। वहाँ गर्मी का नामोंनिशान भी न था। यह दार्जिलिंग था, पहाड़ों की चोटी पर बसा अत्यंत ही दुर्लभ और असीम प्राकृतिक सौंदर्य समेटे एक ऐसा शहर जहां सारे सपने वास्तविक होते नज़र आते हैं। मैं इन बादलों के बीच आकर स्वयं को स्वर्ग के अधिपति इंद्र के तुल्य समझने लगा था। इतनी सुंदरता पहले कभी नहीं देखी थी। मैंने तो सोचा भी न था कि कभी यहाँ आने का सौभाग्य प्राप्त होगा। मुझे बिल्कुल भी यकीन नहीं हो रहा था कि सचमुच मैं यहाँ हूँ। ऐसा लग रहा था जैसे मैं किसी सपने में जी रहा हूँ।
30 जून  की शाम जब पंकज ने मुझसे कहा -“चलो छोटू दार्जिलिंग घूमने चलते हैं “,मुझे लगा बंदा मज़ाक कर रहा है।(इससे पहले भी हमने घूमने की कई योजनाएँ बनाई थीं पर किसी न किसी कारण से वह साकार नहीं हो सकीं) मैंने फिर भी हामी भर दी और कहा चलो चलते हैं, फिर उन्होंने मुझे रात के आपसी विचार विमर्श और यात्रा से संबंधित योजना से अवगत कराया क्योंकि चर्चा वाली रात मैं सो गया था और इस तरह से रोचक चर्चा का हिस्सा बनने से वंचित रह गया था।
उस रात जब सभी कपड़े धोने लगे और अन्य तैयारियों में जुटे तब मुझे विश्वास हुआ कि हाँ ! इस बार हम सच में घूमने जा रहे हैं। फाइनली ,इस बार ….
अगली सुबह , 1 जुलाई को हम सब ने चौथे सेमेस्टर की आखिरी परीक्षा से लौटते ही विचार-विमर्श चालू कर दिया कि कैसे जाना है ? गाड़ी कहाँ से लेनी है और किराया कितना होगा ? मेरे तीनों साथी बहुत उत्साहित थे, शाम के 7:30 बजते ही हम कुछ जरूरी सामान को बैग में डालकर चल पड़े, बिलकुल मस्तमौलों की तरह ..
सिंदरी स्टेशन से हमने ट्रेन पकड़ी और चल पड़े धनबाद की ओर , मैं अपनी धुन में कुछ गुनगुनाते हुए जा रहा था तभी अचानक मुझे कुछ ऐसा सुनाई दिया कि मैंने झट से ईअरफोन निकाल दिए और फिर से एक पल के लिए ऐसा लगने लगा कि एक बार फिर से हमारे घूमने की ख्वाहिश अधूरी रह जाएगी, दरअसल अपने मित्र से पूछने (चूँकि इंटरनेट का नेटवर्क नहीं था) पर नितेश को पता चला कि कल दार्जिलिंग जाने के लिए कोई ट्रेन ही उपलब्ध नहीं है।
मैं, ऋषभ और नितेश इस पक्ष में भी थे कि दार्जिलिंग न सही तो कहीं और ही घूम आएँगे जैसे वाटर पार्क या कोई मशहूर चिड़ियाघर लेकिन पंकज इस पक्ष में नहीं था। वह बोला “मैं तो चला घर तुम लोगों को कहीं और घूमना हो तो घूम सकते हो।
फिर सबकी सहमति से हमने चाहे जैसे भी संभव हो दार्जिलिंग जाने का फैसला कर लिया और सोचा जाएँगे तो दार्जिलिंग ही ,हमने रात के 11:00 बजे कोयलांचल धनबाद से हावड़ा के लिए ट्रेन पकड़ी और सुबह 7:00 बजे हम हावड़ा उतर गए।
नितेश पहले कभी हावड़ा नहीं आया था वह इतने बड़े स्टेशन और उसकी आलीशान संरचना को देखकर दंग रह गया। हावड़ा पहुँचते ही हम सबसे पहले गंगा तट की ओर चले गए जहाँ से हावड़ा ब्रिज बहुत ही मनोरम जान पड़ता है। सुबह का समय था, कई श्रद्धालु गंगा के पावन जल में स्नान के लिए वहाँ उपस्थित थे। हमने माँ गंगा को नमन किया और गाड़ी की व्यवस्था के लिए हावड़ा स्टेशन की ओर चल दिए । वहाँ पूछताछ करने पर पता चला सियालदाह से जलपाईगुड़ी (यहाँ से दार्जीलिंग के लिए गाड़ियाँ मिलती हैं) के लिए 9:00 बजे की ट्रेन है। अब तो हमारी खुशी का ठिकाना ही न रहा, हम सियालदाह चले गए। हमें दो से तीन घंटे का इंतजार करने के बाद गाड़ी आने की सूचना मिली। गाड़ी आने से ठीक पहले कुछ ऐसा हुआ कि हम हैरान रह गए। हम दौड़-दौड़ कर जनरल डिब्बे की तरफ भाग रहे थे तभी देखा कि लोग कतार लगा रहे हैं ,पता करने पर मालूम चला यहाँ सीट पाने के लिए लंबी कतारों में लगना पड़ता है और लोगों को सीट पुलिसवाले क्रम के अनुसार मुहैया कराते हैं। हम लोग वहीं बगल में खड़े हो गए तभी हमारे पास एक आदमी आया और बोला “ सीट चाहिए आप लोगों को? सबसे पहले दिलवा दूंगा, प्रति व्यक्ति ₹100 लगेंगे”। क्योंकि सफर करीब 11 से 12 घंटे का था तो हमने हामी भर दी और अतिरिक्त 400 रूपए देकर सीट पा ली। शुरुआत में हमें लगा कि शायद यह कोई ग्रुप होगा जो सीट लूट कर रखता होगा लेकिन इसमें पुलिस की मिलीभगत देख हम दंग रह गए। हम बातें करते हुए यूं ही सफर तय करते रहे और बीच में थोड़ा सो भी गए थे, फिर अचानक से एक शोर ने सबकी नींद तोड़ दी, “अरे उधर देखो खिड़की की ओर ” ,मैंने भी खिड़की की तरफ देखा चारों तरफ दूर-दूर तक सिर्फ पानी ही पानी पानी के अलावा कुछ और नज़र न आ रहा था। ऋषभ ने बताया यह गंगासागर है। बचपन में दादी से बहुत सुना था इसके बारे में ,वह कहती थी, “सारे तीरथ बार-बार, गंगासागर एक बार”। गंगा और सागर के संगम से बना है गंगासागर। यह इतनी लंबी थी की मैं सोचने लगा की शायद अब खत्म हो,अब खत्म हो, लेकिन वो खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी ।
ऐसा नज़ारा जीवन में पहली बार देखा और अनुभव किया। करीब 24 घंटे के सफर के बाद हम रात 7:30 बजे न्यू जलपाईगुड़ी स्टेशन पहुँचें, वहाँ पहुँचकर हमने सबसे पहले पेट पूजा की।
इसके बाद वहाँ से दार्जिलिंग जाने के लिए विचार-विमर्श करने लगे, हमने वहाँ की मशहूर खिलौना ट्रेन (toy train) के बारे में पता किया, वह यहाँ से सुबह 8:00 बजे खुलती है लेकिन किराया जानकर ट्रेन से जाने का सपना हमने वहीं छोड़ दिया क्योंकि किराया प्रति व्यक्ति 1400 रूपए था। रात के समय में जीप वाले भी और अधिक किराये की माँग कर रहे थे तो हमने सुबह जाना ही उचित समझा और हमने रात वहीं गुजारने की ठानी। बारिश की बूँदों ने माँ के भोर वाले छिड़काव के तरह सुबह 3:00 बजे ही हमारी नींद तोड़ दी और हमने बिना देरी किए वहाँ से गाड़ी ली और फिर शुरू हो गई हमारी वह यात्रा ….जिसका हमें बेसब्री से इंतजार था। मैं खिड़कियों से लगातार झाँकते हुए जा रहा था बहुत दूर तक कुछ दिखा नहीं तो मैंने नजरें हटा लीं, थोड़े इंतजार के बाद मन पुनः उत्साह से भर गया। ऐसा लगा मानों किसी दूसरी दुनिया में प्रवेश कर चुकें हों, कारण सुकना के वन थे। चारों तरफ हरियाली की चादर ओढ़े अत्यंत सुंदर। वहाँ के पेड़ इतने विशालकाय थे मानो आकाश की ऊंचाइयों को छूने को बेताब हों। उनको देखकर हम दंग रह गए और उनकी सुंदरता को मन में उतार ही रहे थे कि चाय के हरे -भरे खेत सेज़ सा हमारा इंतज़ार कर रहे थे, मैं बिना पलकें झुकाए, टक-टकी लगाकर उन्हें देखे जा रहा था। हम नज़ारों को आँखों और कैमरों में निरंतर कैद किए जा रहे थे। आगे चलने पर हमें पहरा देते देश के बहादुर जवान और उनका आर्मी कैंप दिखा जहाँ सुनहरे अक्षरों में अंकित था “जीतेंगे हम 121” आर्मी ट्रेनिंग कैंप, और उससे संबंधित चीजें बहुत ही आकर्षक थीं। साथ ही सुनहले मौसम में देशभक्ति की गर्मजोशी भी जगा रही थीं। कुछ देर चलने के बाद हमें पहाड़ी लक्षण दिखने शुरू हो गए सड़कें जलेबी की तरह घुमावदार होने लगी। रस और मिठास तो वातवरण में थे ही, कुछ समय के लिए ऐसा प्रतीत हुआ कि हम सच में मिठाई के डिब्बे में है और रोमांच और खुशियों का स्तर पहाड़ की ऊंचाई के साथ खुद ब खुद बढ़ने लगा।
वह दृश्य अब भी आँखों में ज्यों-का-त्यों है , जब पहली बार बादल को पर्वतों पर बहुत करीब से देखा। सब कुछ एक सपने सा लग रहा था, स्वर्ग की अनुभूति हो रही थी, मैं जोर से चिल्ला उठा “भाई उधर बादलों को देख, कितने मस्त है यार”। “हाँ यार, दूर-दूर तक कुछ नजर नहीं आ रहा है और पहली बार इसकी वजह धुंध नहीं बल्कि बादल हैं” नितेश ने कहा। मैं थोड़ा सा नाराज भी था क्योंकि मेरी सीट से सब कुछ स्पष्ट नहीं दिख रहा था। धीरे-धीरे ऊँचाई बढ़ती गई और नज़ारा और भी खूबसूरत होता चला गया। ऐसा लग रहा था मानो साक्षात भगवान शिव दूधों से भरे कुंड में स्नान कर रहे हों।
हमें रास्ते में एक घर दिखा, फिर एक-एक करके कई घर दिखने लगे तभी नितेश ने मुझसे वह सवाल पूछ दिया जो मैं खुद भी सोच रहा था इतनी ऊंचाई पर यह घर कर क्या रहा है?
दरअसल हम दार्जिलिंग से पूरी तरह अनभिज्ञ थे हमें मालूम नहीं था यह पहाड़ों के ऊपर बसा एक अत्यंत सुंदर शहर है। मुझे इसके बारे में बस इतना ही पता था कि यहाँ चाय की खेती होती है। धीरे-धीरे करके हमें घर आदि नज़र आने लगे तब जाकर पता चला कि यह भरा पूरा शहर है।
इतने सुंदर नज़ारों को देख मन में बार-बार जिज्ञासा हो रही थी कि बाकी का सफर पैदल ही तय कर लिया जाए लेकिन यह संभव नहीं था क्योंकि गाड़ी से ही सफर 8 घंटे का था। बीच-बीच में गाड़ी जब मुड़ रही थी तब थोड़ा डर भी लग रहा था। सड़क बिल्कुल नपी- तुली थी । ऐसी सड़कों पर गाड़ी चलाना बेहद ही साहस का काम है जहाँ नीचे मौत दिख रही हो। बीच-बीच में हम मजाक से बोलते भी जा रहे थे लगता है आज भगवान से मिलन होकर ही रहेगा या तो ऊपर या नीचे। लंबे इंतजार के बाद आखिरकार हम दार्जीलिंग पहुँच गए दार्जिलिंग समुद्र की सतह से करीब 8000 फ़ीट की ऊँचाई पर है। दार्जीलिंग को पर्वतों की रानी(queen of hills) भी कहते हैं और प्रकृति ने इसकी साजसज्जा वास्तव में बिल्कुल रानी की तरह की है। वहाँ पहुँचने के बाद हमने किसी और चीज के बारे में सोचे बिना भ्रमण जारी रखने का फैसला किया। उस समय थोड़ी-थोड़ी बारिश भी हो रही थी और ठंड भी लगने लगी थी पर हम जोश से भरे हुए थे और यूं ही चलते रहे। कुछ दूरी पर हैप्पी वैली (चाय का बागान ) था।
उसी रास्ते में हमे वह स्कूल भी दिखा जहाँ मेरा नाम जोकर, मैं हूँ ना(st. Joseph school) और यारियां (st. Paul’s school) जैसे फिल्मों के कुछ दृश्य को फिल्माया गया है। हम थोड़ा और आगे बढ़े और देश और आगे था। इतनी ऊंचाई पर स्थित सबसे बड़े चिड़ियाघर (पद्मजा नायडु हिमालयन जू पार्क) का भ्रमण किया हमने।
यह समुद्र तल से करीब 7000 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। अपने कॉलेज कैंपस से इतर यहाँ बहुत से जानवरों के दर्शन हुए जैसे स्नो लेपर्ड, भालू, लाल पांडा इत्यादि। उसके बाद हम बंगाल नेशनल म्यूजियम गए जहाँ पर विभिन्न पशु -पक्षियों के शरीर को संरक्षित कर रखा गया है। म्यूजियम में विभिन तरह के सांप,पक्षी,भैंसे,भेड़ें इत्यादि थे। थोड़ी देर के विश्राम के बाद हम हिमालयन माउंटेनियरिंग इंस्टीट्यूट चले गए जहाँ हमें एक और म्यूज़ियम देखने और उसके बारे में जानने को मिला ,यहाँ पर्वतारोहियों द्वारा पहने गए कपड़े और उनके द्वारा उपयोग किए गए वस्तुओं को संरक्षित करके रखा गया था। यहाँ तेनजिंग और हिलेरी के स्मारक भी थे । इन संरक्षित चीज़ों के बीच पहली बार वहाँ चिलमिलाती धूप हमारे गालों पर चपत लगाती दिखी।
अबतक हमें घूमते हुए कई घंटे हो चुके थे पर हम रुकना नहीं चाहते थे। हम वहाँ से हैप्पी वैली की ओर चल दिए, रास्ते बड़े ही अलग थे एक होते हुए दो परिस्थितयों को बताते, कहीं पर इतनी ढलान कि खुद के पांवो पर काबू नहीं रहता तो कहीं पर इतनी चढ़ाई कि पांवो को विराम देना पड़ जाता। हमने वहाँ कई विशाल वृक्ष देखे लेकिन एक ऐसे फल का विशाल पेड़ देखा जो कल्पना में ही सच लग सकता था। वह था केले के पेड़, औसत ऊँचाई से पाँच से छः गुना लंबे, इन्ही दृश्यों को देखते हम घाटियों से नीचे उतरते जा रहे थे। लगभग 1 घंटे तक हम उतरते ही रहे। बीच-बीच में कभी चाय के बागानों के बीच बैठकर गपशप करते, कभी आगे के लिए योजनाएं बनाते ।IMG-20180623-WA0023.jpg
हमने तय किया की एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ जाएंगे जहाँ दूर से आराम करने की जगह दिख रही थी पर पहुंचने पर ऐसा कुछ भी न था। अब हमें भूख भी लग रह थी हमने वापस ऊपर जाने का फैसला किया। उतरते वक़्त तो हम बच्चों से सरपट दौड़ लगाते हुए उतर गए पर चढ़ाई के दौरान किसी बुज़ुर्ग समान हमें हर 10 मिनट में रुकना पड़ रहा था, लेकिन हरी-भरी बगानें एक साहस प्रदान कर रही थीं की चलो और सुन्दर दृश्य तुम्हें पुकार रहे हैं। हमने महिलाओं को दूर से पानी लाते देखा और अनायास ही बोल उठे कि इतनी दूर से पानी लाना पड़ता है। महिलाओं ने शायद हमारी बातें सुनी और मुस्कुरा कर कह उठी “हाँ बाबू पानी का प्रॉब्लम है यहाँ”।
हमने ऊपर जाकर थोड़ा जलपान पेट को दिया फिर यूँ ही चल पड़े किसी घुमंतू की तरह , हमने तय किया था हम सारी दूरियाँ पैदल ही तय करेंगे। हमने गोम्बू रॉक पर चढ़ाई की, आगे तेनजिंग हिल पर लोगों को पैसे लेकर उस पर रस्सियों के सहारे चढ़ाया जा रहा था लेकिन हमने वह खुद ही किया ।
हम दिन भर घूमते रहे और पहले ही दिन कई सारी चाय बगानें घूमकर अपना मन भी उन की तरह हरा और नरम कर लिया। शाम होने पर हम ठहरने के लिए कमरे की तलाश में जुट गए। बड़ी मशक्कत के बाद हमें ₹2000 में 4 बिस्तर वाला एक कमरा ठहरने के लिए मिल गया। हमने सुबह जल्दी जागने की योजना बनाई क्योंकि हमें टाइगर हिल जो दार्जिलिंग में सबसे ऊंची जगह है (करीब 8500 फ़ीट) वहाँ से सूर्य को सबसे पहले उगते हुए देखना था, उसकी लालिमा को फूटते हुए देखना था , बड़ी अजीब बात थी- ‘वे चार लड़के जिनकी सुबह दोपहर में होती थी वे सबसे पहले सूर्योदय देखने के लिए व्याकुल थे’, सिर्फ प्राकृतिक सुंदरता में इतना सामर्थ्य है और सिर्फ वही ऐसा करवा सकती है , लेकिन यह बिल्कुल लॉटरी की तरह थी क्योंकि15- 20 दिनों में एक दो बार ही वहाँ से सूर्योदय दिखता है और उस दिन हमें भी नाकामयाबी ही मिली हमने तय किया कि 1 दिन और रुकेंगे लेकिन यहाँ से सूर्योदय देखकर ही जाएंगे और हम वहां से पैदल ही चल पड़े। हमने पहले ही दिन इतना घूम लिया था कि सारी चीजें अब परिचित सी लग रही थी। पैदल घूमते हुए एक समस्या आ रही थी,कहीं भी साइन बोर्ड नहीं थे और जहाँ-तहाँ गंदगी का अंबार फैला हुआ था। हवा में अजीब गंध थी। इतने अधिक मानवीय हस्तक्षेप को देखकर चिंता हुई और मन कुंठित हो गया। पर्वतों की रानी जैसे वह बता रही थी कि उसके साथ दुर्व्यवहार किया जा रहा था लेकिन यह सब देखकर हमें तनिक आश्चर्य न हुआ आखिरकार हम भारत में ही तो थे।
शाम तक घूमते घूमते थक चुके थे और भूख से तड़प रहे थे तब हमने होटल में खाना खाया और फिर कमरे की तलाश की और विश्राम किया। अगली सुबह हम 4:00 बजे ही टाइगर हिल चले गए और सबसे आखिर तक वहाँ रुके पर न ही सूर्योदय दिखा न ही वहाँ की मशहूर बहुत ही सुंदर बर्फ से सजी कंचनजंघा। तभी ड्राइवर आकर चिल्लाने लगा और हम लौट गए। रास्ते में गाड़ी मुश्किल से 1 मिनट चलती और रुक जाती इसका लाभ उठाते हुए हम बीच में उतर गए और पर्वत पर चढ़ने लगे वहाँ कोई रास्ता नहीं था पर किसी तरह हम बचते-बचाते बहुत ऊपर चढ़ गए और वहाँ से बर्फ से ढकी कंचनजंगा झांकती नजर आई। शायद वो भी हमारी उत्सुकता से प्रसन्न थी और मेहनत का इनाम देना चाहती थी। इस प्रकार हमारी कोशिश सफल रही। हम इसके बाद मोनेस्ट्री, गए वहाँ 5 मिनट रुककर भगवान बुद्ध के दर्शन करने के पश्चात वहाँ से चल दिए। हमारे आखिरी पड़ाव बतिष्टा लूप थी जो कि क्रांतिकारी गोरखा लोगों की स्मारक थी। यहाँ से कंचनजंगा बहुत सुंदर दिखती है हमने बहुत देर तक इंतजार किया पर यहाँ हमें असफलता प्राप्त हुई। फिर हमने सोचा की प्रकृति से अधिक की मांग उचित नहीं ,इसी क्रम में घूम और दार्जिलिंग स्टेशन की सुंदरता को आँखों में सजोने का अवसर मिला, उन्हें देखकर लगा स्टेशन कुछ ऐसे हो तो इंतज़ार भी सुन्दर लगेगा ।
अब हमसब दार्जिलिंग से वापस लौट रहे हैं और लग रहा है कि बैग इस बार कुछ भारी हो गया है क्योंकि इस बार सिर्फ जरुरी सामान नहीं ,वहाँ के चाय बागान की हरियाली ,बादलों की सफेदी,युवतियों की शर्म, दुर्गम रास्ते से स्कूल जाते हुए बच्चों की हँसी और न जाने कितनी सुंदरता, कितना प्रेम ले कर वापस लौट रहे थे।
यूँ तो कैमरे में अनगिनत तस्वीरें उतारी है लेकिन हृदय में जो दार्जिलिंग उतर गया है वो हर बार होठों पर मुस्कराहट छोड़ दे रहा है और इन्ही सब के साथ कब कॉलेज पहुँच गये पता ही नहीं चला ।
सफ़र खत्म हो चुका था मन में यादों का सफ़र लिए … दार्जिलिंग का एक और सफ़र के साथ।

 

This slideshow requires JavaScript.

One thought on “दार्जिलिंग: पहाड़ और शांति

Leave a Reply

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  Change )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  Change )

Connecting to %s