खड़े हो फल्गु की रेत पर देने को मुझे तर्पण
माँग रहे हो पित्र शान्ति देकर मुझे रेत की अर्पण
पर यह सब कुछ तो व्यर्थ ही होगा
और झूठे दिखावे ना मुझे मोक्ष देगा।

पर जब हम धरती पर थे पाले रहते तुझसे आस
मिले हमें  तुम्हारा सुख जो बने बुढ़ापे की लाठी काश।
सिमट गये एक कोठरी में हम,चाहे तुझसे हो आँखे चार
तेरे बचपन की यादें संजोते मानो जैसे जीवन मिली हो पहली बार।

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आज तुम जो करा रहे भोज भंडारे खिला रहे गाँव-समाज
पर क्या तुम भूल गये इसे पाने को तरसे हम बार बार।
फटे पुराने कपड़े मेरे काटी छोटी डिबियों में सारी रात
टूटे खपड़े अरमान तले घर में रहती सिर्फ टूटी खाट।
आँसू से दर्द बाँटे जीने का बस यही था सार
और कभी न आते हमसे मिलने क्या तुम्हें  न था हमसे प्यार।

अब आने से क्या होगा सब कुछ तो खो गया
समय का पहिया जाते-जाते अपनी जीवनी बोल गया।
पर फिर भी देता हूँ तुझे आशीर्वाद
तेरा जिंदगी जिससे ना हो बर्बाद।
पर जाते जाते कहता हूँ एक बात
आज कर देना इतना अर्पण                                                                    की कल ना आये यह तर्पण की बात।

आदित्य देवराज
रसायनिक अभियंत्रण
तृतीय वर्ष

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