मैं अक्सर लोगों के सामने
खुली किताब की तरह खुद को फेंक देता हूँ
लोग कुछ पन्ने पढ़ लेते हैं
कुछ पन्ने फाड़ देते हैं
और लोग,मेरे पास होते हैं
स्टॉल पर रखी उस महंगे किताब की तरह
जो चमकती जिल्द में पैक है
जिस के पन्ने मैं पलट नहीं सकता
बस,कवर के पीछे इंटरेस्ट पैदा करने के लिए
लिखे गए अंश को पढ़ सकता हूँ
जिसके पन्ने  मैं  तब तक नहीं पढ़ सकता
जब तक वह मेरी नहीं है,जब तक मैं उसे खरीद न लूँ

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मैं और लोग, मिलते हैं यूँ ही
अनजान अजनबियों की तरह
मैं और लोग,अक्सर नहीं समझ पाते एक दूसरे को
परेशान अजनबियों की तरह
परेशान लोग अक्सर परेशान हो जाते मुझसे
वह भी जो सभ्य हैं या सभ्य होने का नाटक करते हैं
वह भी जो अलग हैं या अलग होने का वादा करते हैं
शायद परत दर परत चढ़ी लिफाफ़ों  को हटाकर
मिल नहीं पाते हैं,मैं और लोग
शायद एक-से डर में जीते हैं
मैं और लोग।

~कुमार हर्ष

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, रुड़की

One thought on “मैं और लोग

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