माँ,
कल मैं अलमारी साफ कर रही थी । हाँ, कर लेती हूँ अब,आप जो नहीं हैं मेरे पास।
अलमारी में उमड़े तूफ़ान से लड़ते लड़ते थक कर सुस्ताने बैठी तो आप ही जेहन में थीं।कितना आसान था सबकुछ, सारी उधेड़बुन से निकलना ,चाहे वो अलमारी की बात हो या मुश्किलों की…
और न जाने क्यों मन में खयाल आया और दराज़ से कलम और कागज निकाल आपको खत लिखने बैठ गई।
माँ ,इस खत को लिखते समय मेरे मन में बस वही शब्द घूम रहे हैं जो आपने उस रात मेरे बालों को गूँथते हुए कहे थे ,
“बेटा ,शब्दों में बहुत ताकत होती है, सुन्दर शब्द किसी की बोझिल आत्मा को भी इंद्रधनुषी रंगों से भर सकते हैं।”
आपने कहा था- “जब तुम किसी व्यक्ति के सामने हो, तो अपने शब्दों में इतनी खूबसूरती और प्रेम लाओ कि क्षण भर के लिए ही सही, लेकिन दुख को मिटाकर उसके चेहरे पर इक मुस्कान की लकीर खींच दो और नजरों से दूर होने पर उन्हीं शब्दों को पन्नो पर टाँक कर उनकी मुस्कान को और चौड़ी कर दो।”
लेकिन माँ, क्या मेरे शब्दों में इतना सामर्थ्य है कि आपके दिव्य व्यक्तित्व का वर्णन कर सकें? कि आपके प्रेम को शब्दों में गूँथ सकें? कि आपके वात्सल्य को पंक्तिबद्ध कर सकें?
शायद नहीं,लेकिन फिर भी एक नाकाम कोशिश रहेगी।
अगर मैं हूँ , हम हैं , तो सिर्फ आपके कारण।
माँ, आप उस ईश्वर की सबसे मनोहर रचना हैं , जिसको इस धरा पर उतारा गया है सुन्दर जीवन की रचना के लिए, नए जीवन के सृजन के लिए।
आपने सिर्फ नौ माह तक सींचा ही नहीं अपने रक्त से, बल्कि असहनीय प्रसव वेदना को सहन कर मुझे जन्म दिया और अपनी छाती से लगाकर पाला। अपने अस्तित्व को भूल,अपने सपनों को भूल कैसे आप हमारे आँखों में सपने भरने लगी और उन्हें ही अपना स्वप्न बना लिया,हमारे व्यक्तित्व निर्माण में जुड़ गईं।
आप कहेंगी “हट ! माँ से भी ये सब कहता है कोई , ये तो फ़र्ज़ है मेरा।”
मुझे पता है ,आपको इसकी जरूरत महसूस नहीं होती क्योंकि जरुरत तो वहाँ होती है जहाँ किसी कार्य के पीछे स्वार्थ छिपा होता है
और इस रिश्ते में कोई स्वार्थ नहीं,वो बिल्कुल निश्छल है,पवित्र है।
गंगा जल सा,भगवद गीता सा आप सा।
याद है माँ, ओह ! मैं भी कैसी बेवकूफ हूँ जो आपको याद दिला रही ।
आपने ही तो गर्म दुपहरी हो या बरसाती शाम, हर मौसम में ठंडी कुल्फी और गरमागरम पौकोड़े संग खिलखिला पुरानी यादें ताज़ा कर देती हैं।
आपने आज भी मेरी पहली ड्राइंग कॉपी संभाल कर रखी है, जिसमें आड़ी-तिरछी लकीरें देख कर आज भी आप गौरवान्वित हो उठती हैं।
आज जब संगीत में साधनों की कमी नहीं, अब भी आप फिलिप्स के उस टेपरिकॉर्डर पर मेरी तोतली आवाज़ वाली टेप डाल हर रोज़ सुनती हैं।
माँ , जाने कितनी गर्मी की रातें आपने हमें सुलाने के लिए पंखे झल कर बिताई है ।
कैसे बचपन से आजतक आप हमारी फरमाहिशों को डाकिया बन पापा तक पहुँचाती आई हैं।
कितना बोलूँ, क्या बोलूँ ये शब्द पर्याप्त नहीं हैं।
माँ वैसे तो आप हमेशा ख़ास थी ,हमेशा आप ही मेरी सबसे अच्छी सहेली रही और हमेशा रहने वाली हैं।
लेकिन उस शाम जब मैं यहाँ आ रही थी, आँखे नम हो रही थीं और ट्रेन की सीटी के साथ ही आपसे अलग होने का खयाल, जो न जाने कितने रोज़ से सता रहा था ,बरबस ही आँखों के कोने से आँसू के रूप में ढुलकने लगा।
लेकिन,आप शांत थीं ,चेहरे पर कोई भाव ना देख मैं और बेचैन हो गयी यह सोच कि शायद आपको दुख नहीं।
बाकी लोग तो हैं ही।
उस पल लगा दौड़ कर ,सबकुछ छोड़ कर ट्रेन से उतर आऊँ और आपके गले लग बोल दूं कि कहीं नहीं जाना मुझे आपको छोड़कर ,हमेशा आपके साथ रहना है…हमेशा।
लेकिन ट्रेन चल चुकी थी..और मेरे अश्रु धार भी।
और फिर ट्रेन धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगी और आपका साथ छूटता महसूस हुआ । तभी मेरी नज़र स्ट्रीट लाइट की रोशनी में आपकी आँखों के कोने पर अबतक अटके आँसू की ढूलकती बूँद पर पड़ी।लेकिन इससे पहले वो आँसू आपके चेहरे को पार कर आपके गले तक पहुँचता, आपने उसे अपने आँचल से सोख लिया।
उस वक़्त एहसास हुआ कि आपके लिए यह आसान नहीं होगा ,बिल्कुल भी नहीं,बल्कि आपके लिए ही यह सबसे कठिन होगा ह्रदय के अंश को अपने से दूर करना । जिसको आपने एक बीज से लेकर एक पौधे का आकार दिया है ,
उसे बाहरी दुनिया की धूप में भेजना आसान नहीं होगा।
लेकिन इतना प्रेम ,इतनी वात्सल्य-वर्षा और इतना त्याग सिर्फ आप ही कर सकती हैं,एक माँ ही कर सकती है।
और ढलते सूरज के मद्धिम रौशनी के साथ मेरा मन माँ, आपको और दुनिया की हर माँ को नमन करने के लिए एक बार फिर झुक गया।
आपकी सुचिता
अद्भुत !! भावविभोर!!
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