बीस बरस का बेटा उपदेशें देता है।
मुँह में डाला जीभ, जीभ को दी भाषा
किन्तु कह न पाए शायद,
तौल के बोले सम्भाषा ,
अब तीरनुमा शब्दों को उनपर ही छोड़े देता है।
बीस बरस का बेटा उपदेशें देता है।
दिन बड़ा ही शुभ था कि जब तुम आए थे
बर्तन बजी , बजी थी थाली ,बन एक सितारा छाए थे,
दादी खुश थी, बाबा खुश थे, नाना-नानी अति हर्षित थे,
सूखे जीवन के आंगन में, दो बूंद अमीय के बरसे थे,
पर अब तो वो जीवन बरखा,
अस्तित्व डुबोए देता है।
बीस बरस का बेटा उपदेशें देता है।
तेरी एक आह पर बेटे, मैं आठों आँसू रोया था
पा रहा बबूल , पर सच कहता हूँ, मैंने आम ही बोया था
तेरी एक मांग पर बेटे, मैं चाँद लपकने उछला था
लाख मुसीबत गले लगा मैं, मंज़िल तेरी चला था।
उस चाल को बेटा अब, कर्तव्य बताए देता है।
बीस बरस का बेटा उपदेशें देता है।
मानता हूं, कर्तव्य थे वो,
प्रेम के न रंग थे वो
कर्तव्य पाठ सुन लिया बहुत,
अब तुझसे और क्या पाऊंगा !
स्वयं अपने कर्म संग, द्वार उसके जाऊंगा।
और पूछूँगा उस छलिए से,
भवसागर में,
क्यों ऐसी माया डारे देता है ?
बीस बरस का बेटा उपदेशें देता है।
– सत्यप्रकाश , उत्पादन अभियंत्रण -२००१
ये रचना सर्जना के २५वें अंक में प्रकाशित है।