‘कितने पाकिस्तान’ सन् 2000 में लिखी गई कमलेश्वर की पुस्तक है। तथ्य और आलोचना से समृद्ध यह उपन्यास स्वयं में इतिहास के एक खजाने से कम नहीं है। मानव इतिहास के साथ इसमें राष्ट्रवाद, साम्प्रदायिकता और पश्चिमवाद पर खुलकर टिप्पणी की गई है। अनेकानेक उदाहरण देते हुए कमलेश्वर ने यह समझाया है कि समाज के सामान्य वर्ग को अक्सर ठगा जाता रहा है।
इस उपन्यास को सन् २००३ में साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया। इस उपन्यास में लेखक ने एक नया प्रयोग किया है। इसमें सामान्य घटनाएँ, जैसे उपन्यासों में होती है, नहीं हैं; बल्कि ऐतिहासिक घटनाओं का लेखक के नज़रिये से वर्णन है। मुख्य पात्र समय है क्योंकि सारा कथानक उसी के इर्द-गिर्द घूमता है।

कथा संचालन का कार्य एक अदीब करता है। अदीब का अर्थ है साहित्यकार या एक बुद्धजीवी जिसे सही-गलत और अपनी जिम्मेदारी का आभास होता है। उसे लगता है कि अनेक वर्गों में जनता को बाँटकर फायदा उठाया जा रहा है। नायिका के रूप में सलमा को पेश किया गया है। एक और पात्र जो सबसे मजबूत है, अर्दली। जैसे एक आम चपरासी को अपने मालिक की हर करतूत का पता होता है वैसे ही यहाँ भी अर्दली ने जगह-जगह लोगों के दोहरे चरित्र को उजागर किया है।
सार के रूप में हम यह निचोड़ निकाल सकते है कि अनंत काल से चली आ रही मानव जाति में विभाजन की परंपरा अब बंद होनी चाहिए। धर्म के नाम पर, भगवान के नाम पर, जाति के नाम पर, विचारधारा के नाम पर, भाषा के नाम पर और वर्ण के नाम पर विभाजन अब बंद होने चाहिए। उदाहरण के लिए लेखक ने कोसोवा, पूर्वी तिमोर, सोमालिया, कश्मीर जैसे मुद्दों को प्रस्तुत किया है।
कमलेश्वर ने भारत के बाबरी मस्जिद विवाद के जड़ तक जाने की कोशिश की है। और यह सार्थक रूप से दर्शाया है कि बाबरी मस्जिद की प्रचलित कहानी सही नहीं है। उनका सवाल है कि आज तक किसी इतिहासकार का ध्यान बाबरी की ओर क्यों नहीं गया? इसलिए क्योंकि इसकी प्रचलित कहानी के पीछे कोई सच्चाई है ही नहीं। कमलेश्वर ने यह बताने की कोशिश की है कि धर्म का सहारा लेकर शासक कितनी आसानी से जनता को बाँटकर अपना शासन बनाए रखता है। यह बात दाराशिकोह और औरंगज़ेब को केंद्र में रखकर दर्शाया गया है।
उपन्यास में वामपंथी विचारधारा के तत्व देखने को मिलते है और पश्चिम की व्यवस्थाओं के प्रति गुस्सा देखने को मिलता है। इसका कारण यह भी हो सकता है कि सामंतवादी विचारधारा को भारत में लाने के बाद यहाँ जनता की स्थिति ख़राब ही हुई है। पूँजीवाद और उसके द्वारा लाई गई व्यवस्थाओं के प्रति कमलेश्वर का रुख बहुत उत्साही नहीं रहा है। साथ ही साथ धर्म के उपदेशकों को समस्या का एक भाग माना गया है, जैसा कि हमने औरंगज़ेब के प्रसंग में और अन्य जगहों पर देखा है।
एक प्रचलित ढांचे से दूर इस प्रयोगात्मक उपन्यास को समझने में शुरुआत में थोड़ी परेशानी हो सकती है। परंतु धीरे-धीरे ज्ञान और शब्दकोष दोनों में वृद्धि होती जाती है। सामान्य हिंदी और तत्सम शब्दों के मेल ने इस पुस्तक को साहित्य में ऊँचा स्थान प्रदान किया है। उर्दू के अलंकृत उपयोग ने चार चाँद लगाने का काम बखूबी निभाया है। यह पुस्तक समाज के हर तबके को पसंद आती रही है। कमलेश्वर की गहरी खोज, विश्लेषण और सरलता का नतीजा है कि ‘कितने पाकिस्तान’ आज विश्व में सर्वाधिक ख्याति प्राप्त पुस्तकों में सम्मिलित है।